1927 में महात्मा गांधी ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएस) में भाषण देते हुए कहा था कि, संस्थान के अध्यापकों को उन लोगों का ध्यान रखना चाहिए, जिनके कारण वो सभी हैं. गांधी जी ने कहा कि अगर हम उन्हें मिलते हैं और बताते हैं कि हम उनके पैसों से ऐसी सड़कों और इमारतों का निर्माण कर रहे हैं, जो उनके किसी काम नहीं आएगी, बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों के काम आयेगी तो वो इस बात को समझ नहीं सकेंगे. वो इसे नहीं मानेंगे. लेकिन हम उन्हें कभी भरोसे में नहीं लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि 'बिना नुमाइंदगी के, कर न देने' का सिद्धांत उन पर भी लागू होता है.'
दशकों पहले गांधी जी द्वारा बोली गई इस बात के इतने समय बाद भी हम ऐसे संस्थान बनाने में नाकामयाब रहे हैं, जो अमीरों, गरीबों और हाशिए पर मौजूद समाज के वर्गों को साथ लेकर ऐसी नीतियां बनाने पर काम करें, जो सभी के लिये फायदेमंद हो. इस बारे में समाज के संभ्रांत तबके द्वारा हमेशा निर्णय सुनाए जाते हैं, कभी भी संवाद को जगह नहीं मिलती है.
हाल के सालों में देश के अलग-अलग शहरों में, दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की तर्ज पर अंतरराष्ट्रीय केंद्रों की स्थापना हो रही है. शहरों के बीचों-बीच बने यह केंद्र, एक विशेष वर्ग के लोगों के लिए बनाया जाता है. इनमें से कोई भी अमरीका के स्मिथस्नोनियन संग्रहालय के 'अमरीकी लोगों के हितों और हिस्सेदारी के लिये काम करने' जैसे सिद्धांत पर काम नहीं करता है.