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गलवान घाटी में चीन के दावे नए नहीं, यथास्थिति लौटने पर संशय : एमआईटी प्रोफेसर फ्रावेल

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Published : Jul 12, 2020, 11:56 AM IST

Updated : Jul 12, 2020, 1:30 PM IST

रणनीतिक विशेषज्ञ प्रोफेसर एम टेलर फ्रावेल का कहना है कि पूरी गलवान घाटी में चीनी क्षेत्रीय दावे नए नहीं हैं और वे क्षेत्र के पहले के नक्शे के अनुरूप हैं. मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में सुरक्षा अध्ययन कार्यक्रम के राजनीति विज्ञान और निदेशक के आर्थर और रूथ स्लोन प्रोफेसर फ्रावेल ने इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा से बात की.

Professor M Taylor Fravel
डिजाइन फोटो

नई दिल्ली : लद्दाख की गलवान घाटी में हुई हिंसा और भूभाग पर चीन के दावे को लेकर चीन के रवैये के बारे में रणनीतिक विशेषज्ञ प्रोफेसर एम टेलर फ्रावेल का कहना है कि चीन ऐसा पहले भी करता रहा है. उन्होंने कहा कि चीनी सरकारी संसाधनों के माध्यम से उन्होंने जिन मानचित्रों के आधार पर पहचान की है, गलवान पर बीजिंग का दावा हमेशा मुहाना या नदी के किनारे तक झुकता है और भारत के साथ चल रहे इस तनाव के दौरान नहीं बदला है.

वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा से बात करते हुए, अमेरिकी प्रोफेसर फ्रावेल ने यह भी चिंता व्यक्त की कि यथास्थिति की बहाली कभी भी पूरी तरह से संभव नहीं हो सकती क्योंकि दोनों पक्षों को इस बात से सहमत होना होगा कि यह पहले स्थान पर क्या थी.

भारत के समर्थन में अमेरिका के बयानों के बारे में पूछे जाने पर प्रोफेसर फ्रावेल ने कहा कि यह निश्चित नहीं है कि सीमा की स्थिति के और भड़कने पर अमेरिका किस हद तक शामिल होगा और भारत को यह भी तय करना होगा कि क्या वह वॉशिंगटन डीसी के साथ अधिक निकटता बनाना चाहता है.

चीन की विदेश और सुरक्षा नीतियों के विद्वान, प्रोफेसर फ्रावेल 'Active Defense: China's Military Strategy Since 1949' पुस्तक के लेखक हैं. चीन के साथ उसके समीकरणों के संदर्भ में रूस की भूमिका और भारत के साथ रक्षा संबंधों के मुद्दे पर, फ्रावेल ने याद दिलाया कि ऐतिहासिक रूप से रूस ने प्रमुख शक्तियों से जुड़े विवादों में तटस्थ रहने को चुना है. प्रोफेसर फ्रावेल का मानना है कि चीन अब और समझौते की आवाज अपना रहा है क्योंकि वह भारत के साथ संबंधों को और खराब करना नहीं चाहेगा क्योंकि उसने अमेरिका के साथ अपने खराब होते संबंधों को और बिगाड़ दिया है. हालांकि, उन्होंने आगाह किया कि नई दिल्ली को परेशान करने के लिए भारत को भूटान और नेपाल जैसे देशों के बीच सीमा विवादों को उलझाने के लिए चीनी प्रयासों के प्रति तैयार रहना चाहिए.

एमआईटी प्रोफेसर फ्रावेल से साक्षात्कार

पढ़ें साक्षात्कार के प्रमुख अंश

प्र: भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हुए तनाव कम करने के लिए धीरे-धीरे विघटन किया जा रहा है जो अब 14, 15 और 17 के पैट्रोलिंग पॉइंट पर पूरा हो गया है. अगला बड़ा फोकस पांगोंग बना हुआ है. राजनीतिक व्यस्तताओं को बढ़ाया गया है. दोनों एसआर (विशेष प्रतिनिधि) ने बात की. पहली बार हुई दुर्घटना के स्तर के बारे में आपकी क्या समझ है?

इसका जवाब देना आसान नहीं है क्योंकि कुछ तरीकों से हम विभिन्न सरकारी स्रोतों से भारतीय समाचार रिपोर्टों पर भरोसा कर रहे हैं और कुछ लोग उपग्रह इमेजरी के माध्यम से कुछ अलग देख पा रहे हैं. उलझन इस बात से भी है कि LAC (वास्तविक नियंत्रण रेखा) को एक प्रकार से सीमा के रूप में लिया जाता है, जिसका उल्लंघन किसने किया यह तय कर पाना मुश्किल है क्योंकि भारत और चीन एक दुसरे पर अतिक्रमण करने के आरोप लगाते हैं. लेकिन जमीन पर ऐसे कोई चिन्ह नहीं हैं जिसे देख कर हम बता सकें कि वास्तव में नियंत्रण रेखा कहां है. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि चीन ने गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग्स और पांगोंग झील में तीन या शायद कुछ ज्यादा जगहों पर आगे कूच की है जिसे वह नियंत्रण रेखा मानता है और जिनमे से कम से कम दो जगहों को भारत नियंत्रण रेखा मानता है. पैंगोंग झील में फिंगर 4 और फिंगर 8 के बीच इस क्षेत्र में बहुत अधिक अस्पष्टता है. भारत फिंगर 8 को एलएसी मानता है जबकि चीन फिंगर 4 को. गलवान घाटी में यह थोड़ा अधिक जटिल है क्योंकि इसका संबंध श्याम नदी से मिलने से ठीक पहले गलवान नदी के मोड़ के साथ है. भारत का दृष्टिकोण शायद यह है कि एलएसी मोड़ के आसपास के क्षेत्र में एक किलोमीटर दक्षिण पूर्व में स्थित है. चीन का विचार है कि यह मूल रूप से मोड़ पर है. भारत के दृष्टिकोण से इन क्षेत्रों में चीन ने घुसपैठ की है. जो कुछ हो रहा है, उसपर चीन मीडिया को बहुत कम बता रहा है लेकिन हमारे पास इस बात की पुख्ता जानकारी है कि चीन वहां तक चला गया है जिसे वह वास्तविक नियंत्रण रेखा मानता है.

प्र: गलवान पर चीन की संप्रभुता के दावे को आप कैसे देखते हैं? चीन के प्राकृतिक संसाधन मंत्रालय के तहत सामान्य भू-स्थानिक सूचना सेवाओं के राष्ट्रीय मंच से एक नक्शा मिला है. आप इसकी व्याख्या कैसे करते हैं?

हाल के नक्शे को देख कर मेरा आकलन है कि चीन के गलवान घाटी पर दावों में कोई अंतर नहीं आया है. चीन ने शुरू से गलवान घाटी को गलवान नदी के मोड़ तक अपना माना है. यह पूर्व से पश्चिम तक पांच किलोमीटर श्योक नदी से मिलने तक गलवान घाटी में विस्तृत है. चीन बाकी की गलवान घाटी को अपना मानता आया है.

वर्तमान में चल रहे तनावों के वर्तमान फोकस से लगभग 40 किलोमीटर दूर गलवान घाटी का अलग हिस्सा वास्तव में 1962 के युद्ध में काफी प्रमुखता से प्रदर्शित हुआ था. चीन सरकार की वेबसाइट से जो नक्शा पहचानने में आता है वह चीन के दावे को गलवान नदी के पिछले हिस्से से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर रखता है, जहां से यह मुड़ता है लेकिन नक्शे में नोट करने के लिए महत्वपूर्ण दो चीनी अक्षर हैं जिनका अनुवाद मुहाना होता है. चीन के बयानों में मुहाने शब्द पर जोर दिया गया है. इसलिए जिसे चीन गलवान घाटी कहता है और भारत जिसे गलवान घाटी कहता है तो वह एक ही है यह मैं नहीं समझ पाता.

प्र: आपका आकलन है कि गलवान पर चीनी दावा कोई नया नहीं है या इसमें कोई ठोस सामरिक बदलाव नहीं है?

चीन के दावों में ऐसा परिवर्तन नहीं दिखता है कि इसे पश्चिम में 5 किलोमीटर दूर श्योक में ले जाया गया हो. यह मोड़ पर ही स्थिर है. क्षेत्र में चीन की उपस्थिति के संबंध में एक अलग प्रश्न है. यह मेरे लिए स्पष्ट नहीं है कि चीन कितनी बार अपने दावे के लिए गश्त कर चुका है. कई भारतीय रिपोर्टों से पता चलता है कि चीन की उपस्थिति नई थी और इस प्रकार चिंताजनक थी. इसलिए किसी के दावे के बीच अंतर करना होगा क्योंकि यह उस दावे के समर्थन में मानचित्र और गतिविधि के स्तर से समझा जा सकता है. लेकिन मुझे लगता है कि चीनी बयान और यह नक्शा और कुछ अन्य लोगों के बयान से यह बहुत स्पष्ट है कि उनके दृष्टिकोण से जहां नदी मुड़ती है और आगे नहीं बढ़ती वहां गलवान घाटी समाप्त होती है. इससे उनके जून 6 को पीछे हट जाने की योजना, जो सफल नहीं हो पाई, के बाद दिए इस बयान को सही माना जाना चाहिए कि दोनों पक्षों ने नदी के मुहाने के दोनों बाजू में चौकियां बनाने की मंजूरी दे दी. इसलिए आज नदी के मोड़ पर जो पीछे हटने की प्रक्रिया शुरू हुई है वह समझ में आती है. यह नदी के एक किलोमीटर के किनारे तक सीमित है जिसे भारत पूर्व में चीन की दिशा में मानता है और चीन जिसे अपना क्षेत्र मानता है.

प्र: गलवान हिंसा और चीन द्वारा इसे अपने रुख के प्रतिशोध के रूप में पेश करने की कोशिश के बाद सभी पार्टी की बैठक में प्रधानमंत्री द्वारा की गई शुरुआती तल्ख टिप्पणियों के बाद क्या आपको लगता है कि इन बयानों से नुकसान हुआ या बहुत भ्रम पैदा हुआ?

इससे भ्रम पैदा हुआ और इस बात से यह भ्रम और भी जटिल हो गया क्यों कि जो हो रहा है वह नियंत्रण रेखा को लेकर हो रहा है और हमें पता नहीं है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा कहां है. और यदि आप यह निष्कर्ष निकालना चाहते हैं कि हमारी सीमा का उल्लंघन हुआ कि नहीं यह तभी संभव है जब हम यह जाने कि वास्तविक नियंत्रण रेखा कहां है. लेकिन चीन जहां तक उसका दावा रहा है उस मोड़ से आगे ही नहीं बढ़ा. इसलिए प्रधानमंत्री के बयान को समझा जा सकता है. लेकिन दूसरी तरफ इस बयान से चीनी राजनयिकों और प्रचार तंत्र को अपने पक्ष में बात रखने का मौका मिल गया. दो रात पहले चीनी टेलीविजन सीसीटीएन पर आधे घंटे की चर्चा 'आज का मुद्दा' कार्यक्रम के तहत प्रसारित हुई. इसमें प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान को दिखाया गया जिसमें उन्होंने कहा कि चीन ने भारत की सीमा का उल्लंघन नहीं किया. इसका मतलब यह हुआ कि चीन जिसे नियंत्रण रेखा मानता है उसने उसे पार ही नहीं किया.

प्र: बफर जोन के बारे में भ्रम की स्थिति प्रतीत होती है कि इसे बदल दिया गया है या भारत नुकसान में रहा है?

समाचारों से जाना कि दोनों पक्षों ने 1.5 पीछे हटने का तय किया है. महत्व का प्रश्न यह है कि कहां से पीछे हटेंगे. वह क्या भारत जिसे गलवान घाटी में नियंत्रण रेखा मानता है वहां से या चीन जिसे मानता है वहां से पीछे हटेंगे. भारत इसे नियंत्रण रेखा से पीछे हटने के रूप में देखेगा. लेकिन बफर जोन का विचार अच्छा है. यह स्पष्ट था कि पीछे हटने की पहले की योजना असफल हुई क्यों कि फौजें एक दुसरे के आमने सामने आ गईं थी. किसको कहां होना चाहिए इस बारे में गलतफहमी थी. वास्तव में क्या हुआ इसे समझना मुश्किल है.

मूल रूप से 3 किलोमीटर की दूरी के भीतर दोनों ओर से गश्त की अनुमति नहीं देने से उम्मीद है कि जमीन पर कुछ व्यावारिक स्थान बने ताकि राजनयिक और राजनीतिक स्तर पर इन मुद्दों को संबोधित करने का अवसर बना रहे.

प्र: इसके बाद भी जब दो विशेष प्रतिनिधियों की बात हुई तब भारत ने यथास्थिति का कड़ाई से पालन करने की बात की और चीन ने क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने की बात की और गलवान झड़पों के लिए भारतीय सैनिकों को दोषी ठहराया. पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एसएस मेनन ने कहा कि यथास्थिति की बहाली की बात बयानों में कहीं नहीं है. क्या यह चिंता की बात है और अप्रैल के पहले की परिस्थिति बहाल करने में कितना समय लगेगा?

मुझे नहीं लगता की पहले की स्थिति पूरी तरह से बहाल हो पाएगी. पहले की परिस्थिति क्या थी यह भी स्पष्ट नहीं है. पैगोंग क्षेत्र में यह ज्यादा स्पष्ट है जहां चीन फिंगर 4 पर स्थाई कब्जा जमाने के उद्देश्य से आधार संरचना बना रहा है. इसलिए अगर पहले की स्थिति बहाल करनी हो तो इन संरचनाओं और चीनी उपस्थिति को हटाना पड़ेगा. गलवान क्षेत्र में पहले जैसी स्थिति का मतलब चीन द्वारा गश्त न लगाना होगा या भारत जिसे नियंत्रण रेखा मानता है वह मानी जाएगी. यदि आपको पहले जैसी स्थिति वापस लानी है तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि पहले जैसी स्थिति की परिभाषा दोनों पक्षों को स्वीकार हो. ऐसा कुछ बयानों में नहीं कहा गया है. लेकिन यह समझा जा सकता है कि सेनाओं के टकराव से बचने के लिए यह पहला कदम है जिसमें आप अभी इन बातों पर अपना ध्यान केंद्रित न कर रहे हों और उनको प्राथमिकता न दे रहे हों. चीन के बयान ने परिस्थिति में क्या अच्छा और क्या खराब है इसका अवश्य जिक्र किया गया है. लेकिन मेरी दृष्टि से चीन द्वारा अपने दावों की स्पष्ट घोषणा अपने आप में एक शांतिपूर्ण पहल है. लेकिन मेरा मानना है कि शेष वक्तव्य का प्रमुख मुद्दा इस बात पर रहा है कि चीन और भारत के बीच जो हुआ उसे भुला कर पहले जैसे संबंध कायम किए जाएं. साथ में विकास और रिश्तों को मजबूत करने के बारे में कही गई बातों को मैं छिछली नहीं मानता. यह इस बात के संकेत देता है कि चीन अभी इन मुद्दों को लेकर भारत से संबंधों को और अधिक बिगाड़ने का जोखिम नहीं उठाना चाहता तब जब अमेरिका के साथ उसके रिश्ते पहले से खराब हो गए हैं.

प्र: अमेरिका के विदेश मंत्री पोम्पेओने कहा है कि उन्होंने भारत के विदेश मंत्री जयशंकर से एक से अधिक बार बात की है. अमेरिका के बयान जताते हैं कि उसके रिश्ते चीन से खराब हो चुके हैं. लेकिन वास्तव में परिस्थिति अगर और खराब हो गई तो बयानबाजी के सिवाय अमेरिका इसमें कितना सक्रिय होना चाहेगा?

जिस प्रकार से पिछले छः महीने से अमेरिका की चीन से सामरिक प्रतियोगिता को लेकर अमेरिकी विदेश मंत्री ने चीन पर ध्यान केंद्रित किया है उससे भारत के संबंध में उन्होंने जो कहा है वह आश्चर्यजनक नहीं है. असली सवाल यह है कि चीन से संबंध और बिगड़ जाने पर क्या अमेरिका का भारत के साथ व्यवहार में प्रभावी परिवर्तन आएगा और वह भारत के समर्थन में उतर आएगा. मुझे इस बारे में शंका है. अमेरिकी विदेश मंत्री के लिए चीन के भारत या किसी अन्य देश के प्रति आक्रमक या बुरे व्यवहार को उजागर करना आसान है. लेकिन अमेरिका किस हद तक हस्तक्षेप करेगा यह कई बातों पर आधारित है. पहला तो यह कि सीमा पर किस प्रकार और स्तर का आक्रमण है. दूसरा, क्या भारत अमेरिका की हिस्सेदारी चाहेगा. इस बारे में भारत के पास विकल्प नाजुक है. ट्रंप प्रशासन की चीन से सामरिक प्रतिस्पर्धा ने दोनों देशों के संबंध बड़ी तेजी से बिगाड़ दिए हैं. ऐसे में भारत को सोचना होगा कि वह अमेरिका के चीन के प्रति रवैये का पूर्ण समर्थन करना चाहेगा. ऐसा हो सकता है अगर अमेरिका भारत को बड़ा समर्थन देने का निर्णय ले. भारत के लिए इस बारे में सही कदम उठाना आसान नहीं है.

लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि भारत और अमेरिका के रिश्तों को मजबूत बनाने का यह एक मौका है. दोनों के सामने चीन से चुनौतियां हैं. सीमा पर अगर एक और आक्रमण नहीं होता तब भी अमेरिका और भारत अन्य क्षेत्रों में सहयोग करने के बारे में सोच सकते हैं.

प्र: विजय दिवस परेड के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह मास्को गए थे. रुस के चीन के साथ गतिशील संबंध को देखते हुए आपको क्या लगता है रूस भारत-चीन संघर्ष में क्या भूमिका निभाएगा? भारत का रूस से हवाई प्रक्षेपण शस्त्र एस-400 की खरीदी पर क्या अमेरिका के प्रतिबंध कानून सी.ए.ए.टी.एस.ए की छाया पड़ सकती है?

सैन्य की दृष्टि से रूस भारत का महत्वपूर्ण सहयोगी है जिससे भारत अत्याधुनिक शस्त्र प्राप्त करता है चाहे वह हवाई सुरक्षा उपकरण हो, लड़ाकू हवाई जहाज हो विशेषकर ऐसी प्रणाली हो जो भारत-चीन सीमा की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं. इसलिए आगे भी रूस महत्त्व की भूमिका निभाएगा. जहां तक सीमा की बात है, भारत, रूस और चीन के बीच त्रिपक्षीय बैठक में रूस ने एक तरह से यह स्पष्ट कर दिया था कि वह बीच में नहीं पड़ेगा. रूस दोनों तरफ से फायदा उठाना चाहता है. वह भारत को ज्यादा से ज्यादा हथियार बेच कर रूस के रक्षा उद्योग की मदद करना चाहता है. दूसरी और अमेरिका के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ संतुलन बनाने के लिए रूस का चीन के साथ गहरा रिश्ता है. मुझे नहीं लगता कि रूस भारत-चीन सीमा विवाद को लेकर कोई जोखिम उठाना चाहेगा क्योंकि इस विवाद में उसका किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है. एक अन्य दिशा में ही सही, 1962 की स्थिति के साथ एक दिलचस्प समानता है. 1962 युद्ध के समय चीन का एक निष्कर्ष यह था कि रूस भारत के साथ युद्ध में चीन की सहायता नहीं करना चाहता था. रूस ने उस समय एक निश्पक्ष भूमिका निभाई. इसलिए इतिहास की नजर में रूस को दो प्रमुख सत्ताओं की लड़ाई के बीच नहीं पड़ना जिन दोनों के साथ उसके संबंध महत्वपूर्ण हैं.

प्र: लेकिन क्या भारत का रूस से ज्यादा हथियार खरीदने के निर्णय ने अमेरिका का दिल दुखाया नहीं है?

यह रक्षा सहयोग पर बड़ी सीमा को दर्शाता है. मुझे नहीं लगता है कि भारत सहित किसी को भी अमेरिका के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए रूस के साथ अपने हथियार संबंधों में कटौती करने की आवश्यकता होगी. लेकिन यह इस बात को रेखांकित करता है कि यह एक बहुत ही जटिल रिश्ता है. अमेरिका-रूस के संबंध बिगड़ने का प्रभाव इस बात पर भी पड़ सकता है कि अमेरिका भारत के साथ क्या करने को तैयार हो. भारत अमेरिकी सहयोग अन्य क्षेत्रों में है जहां रूस की कोई मजबूत भूमिका नहीं है जैसे परिवहन विमान प्रणाली और खुफिया जानकारियों का साझाकरण. सुरक्षा संबंध व्यापक है और कुछ हद तक अमेरिका-भारत सहयोग बढ़ाने के लिए पर्याप्त जगह है. लेकिन यदि उसे हवाई सुरक्षा को मजबूत करना है तो भारत को रूस की ओर देखना होगा. वैसे भी अमेरिका के पास बेचने के लिए हवाई सुरक्षा प्रणाली नहीं है क्यों कि दोनों तरफ समुद्र से घिरे होने के कारण प्रकृति ने उसे ऐसी भौगोलिक स्थिति में रखा है कि उसे कभी हवाई सुरक्षा की चिंता नहीं करनी पड़ी इसलिए भी कि उसके उत्तरी और दक्षिणी भाग में सामरिक दृष्टि से छोटे देश हैं. जब तक वॉशिंगटन को यह लगता है कि रूस से हथियार खरीदने से भारत को चीन को रोकने में मजबूती मिलेगी वह दुसरे क्षेत्रों में भारत के साथ संबंध मजबूत बनाने के आड़े नहीं आएगा. लेकिन आज की यह परिस्थिति भारत की भूभौतिकी रणक्षेत्र में भारत की नाजुक हालत को दर्शाती है.

प्र: आज एक सेटेलाइट छाया युद्ध चल रहा है जिसकी अलग-अलग व्याख्या हो रही है. नियंत्रण रेखा पर फौजों के जमावड़े के बारे में जो सेटेलाइट चित्र मिल रहे हैं वह क्या आपको चिंताजनक नहीं लगते? साथ ही चीन भारत के पड़ोस में नए सीमा विवाद खड़े कर रहा है. उदहारण के लिए उसने पूर्वी सेक्टर में भूटान के सेत्कंग अभ्यारण पर अपना दावा कर दिया है जिसने थिम्पू को चौंका दिया और इसका सख्त विरोध किया. क्या आने वाले दिनों में चीन द्वारा नए मोर्चे खोलने की संभावना के बारे में भारत को तैयार रहना चाहिए?

ऐसा लगता है कि तुलनात्मक दृष्टि से एक बड़े क्षेत्र को लेकर चीन ने भारत और भूटान के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की है. इस क्षेत्र की चर्चा 1980 के दशक में चीन ने की थी लेकिन बाद में उसे यह सोच कर छोड़ दिया था ताकि 90 के दशक में भूटान और चीन के बीच सीमा समझौता हो सके. लेकिन सामरिक दृष्टिकोण से चीन की मुख्य चिंता का विषय भारत नहीं है बल्कि अमेरिका है. द्विपक्षीय संबंध को लेकर चीन के लिए अमेरिका के साथ संबंध उसके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है जो चीन के वैश्विक लक्ष्य को प्राप्त करने की क्षमता पर सबसे ज्यादा असर करेगा. ऐतिहासिक दृष्टि से चीन ने भारत के साथ संबंध को महत्त्व दिया है लेकिन उतना नहीं जितना उसने अमेरिका सहित अन्य के साथ के सम्बन्ध को. लेकिन इसका मतलब यह है कि चीन सीमा पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहता है ताकि वह भारत का पश्चिमी क्षेत्र पर प्रभाव रोक सके विशेषकर इसलिए कि यहां ऐतिहासिक संवेदनशील रोड है जो चीन के शिनजियांग को तिब्बत से जोड़ता है. इसलिए चीन अमेरिका से संबंध के एवज में भारत के साथ रिश्तों को संभालने में ज्यादा संसाधन उलझाना नहीं चाहता. विदेश मंत्री वांग यी का एक लंबा भाषण इस बात पर भार देकर दिया गया था ताकि चीन का कूटनीतिक और सामरिक ध्यान कहां है यह बताया जा सके. इसका मतलब यह है कि हालांकि आने वाले दिनों में चीन भारत को भूटान और शायद नेपाल के अलग अलग क्षेत्रों में सीमा को लेकर परेशान करता रहेगा ताकि वह सीमा पर अपना स्थान मजबूत कर सके और अमेरिका से सम्बन्ध पर ध्यान ध्यान दे सके.

Last Updated : Jul 12, 2020, 1:30 PM IST

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