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ऑनलाइन प्लेटफॉर्म नियमित स्कूली शिक्षा का विकल्प कभी नहीं बन सकते

लॉकडाउन के दौरान छः वर्ष और उससे कम आयु के बच्चों का विशेष ध्यान रखने की जरूरत है. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म नियमित स्कूली शिक्षा का विकल्प कभी नहीं बन सकते. जानें विस्तार से विशेषज्ञों की राय...

Childrens education during corona pandemic
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Published : Jun 5, 2020, 4:04 AM IST

नई दिल्ली : कोरोना काल में शिक्षा व्यवस्था व्यापक रूप से प्रभावित हुई है. सरकार ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से इसे पूरा करने की कोशिश कर रही है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म नियमित स्कूली शिक्षा का विकल्प कभी नहीं बन सकते. विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि लॉकडाउन के दौरान छः वर्ष और उससे कम आयु के बच्चों का विशेष ध्यान रखने की जरूरत है.

राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अम्बरीष राय कहते हैं कि छः वर्ष तक की आयु में बच्चों के मष्तिष्क का 75% विकास हो जाता है. इसलिए इस उम्र में उनकी शिक्षा और सर्वांगीण विकास पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के अधिकारों के लिये देशव्यापी अभियान चलाने की जरूरत है और इसके लिये सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट सरकार को बढ़ाना चाहिए.

यूनीसेफ की प्रतिनिधि और विशेषज्ञ सुनीता आहूजा का कहना है कि कोरोना संकट के मुश्किल घड़ी में हम छः वर्ष से कम उम्र के बच्चों के अधिकारों पर इसलिए बात कर रहे हैं क्योंकि वह देश के भविष्य हैं. स्वास्थ्य की पहुंच की दृष्टि से हमारे गांव की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा भी बेहद जर्जर है. विभिन्न राज्यों में यूनिसेफ द्वारा ली गई पहल की जानकारी देते हुए उन्होंने बताया कि कोविड-19 के बारे में जानकारी देने और सतर्कता के लिए सरकार के साथ बातचीत करते हुए एक कार्ययोजना बनाई गई है और हर घर तक उसे पहुंचाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम हो सकती है. ऑनलाइन माध्यम से भी लोगों तक जानकारी पहुंचाया जा रहा है.

सुनीता आहूजा ने जानकारी साझा करते हुए कहा कि बच्चों की ग्रोथ मॉनिटरिंग न हो पाने से बड़ी संख्या में कुपोषित और अतिकुपोषित बच्चों की संख्या बढ़ रही है और प्रत्येक दिन 1000-1500 बच्चों की मृत्यु कुपोषण की वजह से हो रही है जो कि भयावह स्थिति है.

अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में प्रोफेसर विनीता कौल मानती हैं कि आत्मनिर्भर बनने के लिए बच्चों का सर्वागीण विकास जरूरी है. आज ऑनलाइन शिक्षा की बात जोर शोर से हो रही है और लोग ये मान कर चल रहे हैं कि अभिभावक साथ बैठकर बच्चों को गाइड कर रहे होंगे, लेकिन वह प्रथम शिक्षक होते हुए भी शिक्षक का स्थान नहीं ले सकते. ऑनलाइन शिक्षा ने अभिभावकों को भी दबाव में ला दिया है. ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के अभाव ने व्यापक आबादी को शिक्षा के इस प्लेटफॉर्म से बाहर कर दिया.

प्रोफेसर कौल ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि ऑनलाइन शिक्षा को अगर मान भी लें तो क्या सिर्फ शिक्षा से बच्चों का सामाजिक, शारीरिक और मानसिक विकास संभव हो सकता है? घरों में बढ़ते घरेलू हिंसा के मामले भी बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं इसलिए घर में सामाजिक और संवेदनशील माहौल बनाए रखने की जरूरत है.

इग्नू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रेखा शर्मा का कहना है कि ऑनलाइन शिक्षा और दूरस्थ शिक्षा के फर्क को भी लोगों को समझने की जरूरत है. ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स तकनीकी तौर पर चाहे जितने भी उन्नत हों, वे नियमित स्कूली शिक्षा के विकल्प कतई नहीं हो सकते. एकतरफा संवाद ज्ञान साझा करने के मूल उद्देश्यों, सृजन और सीखने सिखाने की प्रक्रिया को ही बाधित कर देते हैं. छः वर्ष से छोटे बच्चों के लिए तो यह प्रक्रिया तकलीफदेह और उबाऊ हो जाएगी जो आगे उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकती है.

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अलायन्स फॉर राइट टू ईडीसी की संयोजक सुमित्रा मिश्रा का कहना है कि कोविड-19 महामारी के बीच छः वर्ष और उससे कम उम्र के बच्चों का सर्वांगीण विकास प्रभावित न हो इस पर गौर करना बहुत जरूरी है. मार्च में घोषित लॉकडाउन से अब तक सरकार के द्वारा कई घोषणाएं हुई लेकिन इस उम्र के बच्चों को ध्यान में रख कर कुछ भी विशेष नहीं किया गया है. इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है और क्या सरकारें समाज में अपनी जिम्मेदारी निभा रही हैं?

गुरुवार को राइट टू एजुकेशन फोरम के द्वारा आयोजित वेबिनार में सभी विशेषज्ञों ने अपनी राय साझा की और सबने इस बात पर सहमती जताई कि सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकार को अतिरिक्त काम करने की जरूरत है जिसके लिए बजटीय आवंटन को बढ़ाना एक महत्वपूर्ण विषय है.

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