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'अभिव्यक्ति, समानता और स्वतंत्रता को लेकर बहुत याद आ रहे गांधी' - chandrakant naidu on gandhi

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज दूसरी कड़ी.

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Published : Aug 17, 2019, 7:00 AM IST

Updated : Sep 27, 2019, 6:17 AM IST

मोहन दास करमचंद गांधी ने शुरुआती दौर में खुद स्वीकार किया था कि वह औसत दर्जे के छात्र थे और अपनी बात बेहतर तरीके से नहीं रख पाते थे. बाद में उन्होंने अपने आपको असाधारण बौद्धिक व्यक्ति के रूप में विकसित किया. निश्चित तौर पर उन्होंने अपनी जिंदगी में बड़ी तब्दीली लाई होगी, तभी ये प्राप्त हुआ होगा. उन्होंने मानसिक रूप से अपने को मजबूत किया. अपनी बौद्धिक क्षमता इस हद तक बढ़ाई कि किसी भी परिस्थिति में वह चुनौतियों का सामना कर सकें.

21 साल की अवस्था में, जब वह लंदन में कानून की पढ़ाई कर रहे थे, उन्होंने अंग्रेजी साप्ताहिक 'द वेजिटेरियन' के लिए नौ लेख लिखे. इसमें उन्होंने शाकाहारवाद, भारतीय खानपान, रीति और धार्मिक उत्सवों पर चर्चा की थी. उनका शुरुआती लेखन दिखाता है कि वह अपनी बात किस तरीके से सरल भाषा में रखते थे. उन्होंने दूसरों को दिखाने के लिए कभी नहीं लिखा. अतिरंजना से हमेशा बचते रहे. वह सच्चाई के प्रति हमेशा समर्पित रहे. वह लोगों को सूचना देना चाहते थे.

प्रेस को स्वतंत्रता
दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के तीसरे दिन ही वहां की एक अदालत में उनका अपमान हुआ था. वहां के एक स्थानीय अखबार में उन्होंने घटना का विवरण लिखा. रातों रात उनका लेख जनता के बीच लोकप्रिय हो गया. आप अंदाजा लगाइए, उस समय की मीडिया के बारे में, जो इस तरह के लेख को प्रकाशित कर दिया करते थे. रंगभेद नीति थी, लेकिन प्रेस को स्वंत्रता भी हासिल थी.

1893 में द. अफ्रीका में जब उन्होंने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी, वह वहां के अखबारों में लेटर टू एडीटर लिखा करते थे. उन्होंने वहां से भारत के अखबारों के लिए भी ऐसी ही चिट्ठी लिखी थी. इसके माध्यम से ही वह जीवी नटेसन जैसे दिग्गज संपादक के संपर्क में आए. नटेसन मद्रास में इंडियन रिव्यू के संपादक थे. उसके बाद दोनों में लंबी दोस्ती कायम हो गई थी.

आमजन की आवाज उठानी होगी
1893 में अफ्रीका पहुंचने के कुछ महीने में ही उन्होंने यह जान लिया था कि एक पत्रकार होने के लिए भारतीय समुदाय के लोगों के अधिकार के लिए लड़ना होगा. वे यह समझ चुके थे कि विपरीत परिस्थितियों में साहस दिखाना होगा, सच के रास्ते पर टिके रहना होगा, आमजन की आवाज उठानी होगी और प्रस्तुति में वस्तुनिष्ठता रखना जरूरी है. यह सब उनकी चिट्ठी, सरकार को दिए जाने वाले ज्ञापन में साफ झलकता था. एक युवा के तौर पर उन्होंने ये सब तब किया था, जब वहां का कानून अधिकांश आबादी के खिलाफ था.

25 अक्टूबर 1894 को टाईम्स ऑफ नटाल को लिखे गए एक लेटर के जरिए आप इसे समझ सकते हैं. इसमें उन्होंने रेमी-सेमी हेडिंग से काफी तीखा प्रहार किया था.

उनकी चिट्ठी ऐसी थी:

गांधी ने लिखा: 'आप किसी भी परिस्थिति में भारतीय या मूल निवासी को मतदान की अनुमति नहीं देंगे, क्योंकि वे लोग काले हैं. आप सिर्फ उनके बाहरी रंग को देखते हैं. गोरी त्वचा वालों के मन में जहर है या अमृत, आपके लिए यह मायने नहीं रखता है. आपके लिए गोरी त्वचा श्रेष्ठ है. आपके लिए फारसी की लिप-प्रार्थना, क्योंकि वह एक है, जनता की ईमानदारी से अधिक मूल्यवान है, और यह मुझे लगता है, आप इसे ईसाई धर्म कहेंगे. आप कह सकते हैं, यह क्राइस्ट नहीं है. महोदय, क्या मैं सुझाव देने के लिए उद्यम कर सकता हूं? क्या आप अपने नए नियम को फिर से पढ़ेंगे ?

क्या आप कॉलोनी में रहने वाले काले रंगों की आबादी के प्रति अपने रवैये पर विचार करेंगे? क्या आप कहेंगे कि आप इसे बाइबल की शिक्षाओं या सर्वोत्तम ब्रिटिश परंपराओं के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं? यदि आपने ब्रिटिश परंपरा और क्राइस्ट दोनों से ही किनारा कर लिया है, तो मुझे कुछ नहीं कहना है. मैंने जो लिखा है, उसे सहर्ष वापस लेता हूं. अगर आपके बहुत सारे अनुयायी होंगे, तब यह ब्रिटिश और भारतीय दोनों के लिए दुखद दिन होगा.'

गांधीवादी सोच का सबसे अच्छा उदाहरण
अगर आप व्यापक नजरिए से देखेंगे तो गांधी के अहिंसक मार्ग ने नेल्सन मंडेला जैसे महान लोग को प्रेरित किया. गांधीवादी सोच का सबसे अच्छा उदाहरण है रंगभेद सोच पर मंडेला का प्रहार. जिसने भी इसका विरोध किया, मंडेला ने उनका विरोध किया. अफ्रीका में गांधी की पूजा नहीं होती है, लेकिन उसने उनके संदेश को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया है.

यही वह परिस्थिति है कि हमें सीखने की जरूरत है. हमने अजीत भट्टाचार्य जैसे संपादक को करीब से देखा है. आपातकाल के दौरान रामनाथ गोयनका, श्रीमूलगांवकर, बीजी वर्गीज, वीके नरसिम्हन जैसे लोग कभी नहीं झुके.

आज हमलोग एक ऐसे समय से गुजर रहे हैं, जब हमें गांधी के तौर तरीकों की सबसे ज्यादा आवश्यकता है. इस समय अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति है. वर्तमान सरकार मीडिया स्क्रूटनी को पसंद नहीं करती है. हमें प्रेस की स्वतंत्रता चाहिए, ना कि प्रेस से स्वतंत्रता.

आकांक्षाओं का प्रतिबिंब
1903 से लेकर 1948 तक गांधी ने जितने भी लेखन कार्य किए, एक नेता या एक पत्रकार के तौर पर इसमें 30 करोड़ लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिबिंब दिखाई देता है.

पत्रकारिता में गांधीवादी सोच के प्रति आस्था रखने वालों के लिए वर्तमान समय कठिन है. हमें उनके संदेश को समझने की जरूरत है, बजाए इसके सामने झुकने के. 150वें जन्मशताब्दी पर गांधी के प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी.
(लेखक- चंद्रकांत नायडू)
(ये लेखक के निजी विचार हैं. ईटीवी भारत का इनके विचारों से कोई संबंध नहीं है.)

Last Updated : Sep 27, 2019, 6:17 AM IST

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