नेपाली सरकार ने 31 मई 2020 (रविवार) को एक अभूतपूर्व घटनाक्रम में संसद में संविधान संशोधन बिल पेश किया, जो देश के आधिकारिक नक्शे में बदलाव करने से संबंधित है. इसमें भारत के कुछ हिस्सों को नेपाल की सीमाओं के भीतर दर्शाया गया. इस जटिल लेकिन अपेक्षाकृत शांत पड़े क्षेत्रीय विवाद ने तब तूल पकड़ा, जब भारत ने उत्तराखंड में एक सड़क का उद्घाटन करने का फैसला किया. इसके तहत वार्षिक कैलाश मानसरोवर तीर्थ यात्रा के लिए लिपुलेख दर्रे से गुजरते हुए एक नया भूमि मार्ग खोलने की मंशा जताई गई.
यह विवाद तब से सुलग रहा है जब दिल्ली ने जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन के बाद एक आधिकारिक नक्शा जारी किया और इसमें कालापानी और लिपुलेख जैसे क्षेत्रों को भारत की सरहद के भीतर दिखाया, जिसे नेपाल अपना मानता आया है. नेपाल ने दावा किया कि दिल्ली द्वारा किया गया यह कृत्य भारत द्वारा इस विवादास्पद और संवेदनशील मामले पर पहले किए गए समझौतों को खारिज करना है.
भारत और नेपाल के भूमि-बंद राष्ट्र के बीच के रिश्ते अक्सर 'विशेष' वर्णित किए जाते हैं. 1950 में हुई शांति और दोस्ती पर संधि ने नेपाल के नागरिकों को भारत के नागरिकों जैसे अधिकार दिए ताकि वह यहां आसानी से आकर नौकरी करने के अवसर प्राप्त कर सकें. साथ ही भारत ने नेपाल के लिए अपनी सीमा को खुला रखा है. यह तथ्य कि नेपाली नागरिक भारतीय सेना (उच्च सम्मानित गोरखा रेजिमेंट) का बड़ी संख्या में हिस्सा है और जेनरल अधिकारी के पद तक पदोन्नति प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी मिसाल किसी भी दो अन्य राष्ट्रों के बीच रिश्तों के लिए पर्याप्त है और श्रद्धेय है.
भारत और चीन जैसे दो एशियाई दिग्गजों के बीच स्थित अपेक्षाकृत छोटे देश नेपाल ने 2006 की शुरुआत में राजतंत्र से लोकतंत्र का उतार-चढ़ाव भरा सफर तय किया और इस दौरान 'विशेष' संबंधों के लचीलेपन का परीक्षण भी होता रहा है. अपनी जटिल घरेलू मिली-जुली जनसांख्या और 1750 किलोमीटर लंबी सीमा के पार मुख्य भूमि भारत के साथ सदियों पुराने संबंधों को देखते हुए, भारत-नेपाल के संबंध बहुस्तरीय है. तत्कालीन साम्राज्य का हिंदू चरित्र जो बुद्ध के जन्म का स्थान भी है और हाल ही में हुए माओवादी विद्रोह के चरण और नवसारी चुनावी मजबूरियों ने गर्वित लेकिन अपेक्षाकृत रूप से पहाड़ी राष्ट्र में एक नए सामाजिक-राजनीतिक गतिशील का परिचय दिया है.
भारत के साथ विशेष संबंधों में तब से कमी नजर आने लगी है और इस हकीकत के साथ कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी अब काठमांडू में सत्ता पर आसीन है. इससे चीन को राजनैतिक और वैचारिक लाभ मिला है, जो इससे पहले के दशकों में नदारद था. दक्षिणी एशिया का एक विशिष्ट राजनीतिक भूगोल है, जो इस बात में परिलक्षित होता है कि कोई भी व्यक्तिगत राष्ट्र (पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और श्रीलंका) एक दूसरे के साथ सीमा साझा नहीं करता है और केवल भारत के साथ सीमा के माध्यम से एक विस्तारित क्षेत्र के हिस्से हैं. कुछ त्रिकोणीय संधि वाले स्थानों में चीन भी इस जाल का हिस्सा है, जिससे भारत के कई अनसुलझे क्षेत्रीय विवादों में नक्शों को लेकर उलझन और अस्थिरता बढ़ रही है.
ब्रिटिश साम्राज्य के विघटन के बाद इस क्षेत्र का स्वतंत्र राष्ट्रों में विभाजन हो गया और अब यहां क्षेत्रीयता का सवाल बेहद पवित्र और विवादास्पद है. भौगोलिक आकार और जनसंख्या के आधार पर भारत सबसे बड़े राष्ट्र के रूप में अपने छोटे पड़ोसियों की नजर में खटकता रहा है. सम्मिलित रूप से बीजिंग का दक्षिणी एशियाई क्षेत्र के संबंध में अपना ही एजेंडा है, जो अक्सर प्रतिस्पर्धा के तौर पर या दिल्ली के लिए प्रतिकूल साबित होता रहा है.
वर्तमान मामले में नेपाल के साथ क्षेत्रीय विवाद औपनिवेशिक इतिहास का हिस्सा है और काठमांडू एक 1816 की संधि के तहत कुछ क्षेत्रों (लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा) पर दावा कर अपना बताने का प्रयत्न कर रहा है. दूसरी ओर भारत का अपना ऐतिहासिक दावा है, जो 1950 और 1962 और अब 2019 के बाद औपचारिक रूप में अस्तित्व में आया है.