जहां एक तरफ के-4 एसएलबीएम के निर्माण और परीक्षण के लिये, डीआरडीओ और अन्य संस्थाओं को बधाई देनी चाहिए, वहीं के-4 की क्षमता और इससे भारत के पानी के अंदर परमाणु निवारक क्षमता को लेकर बहुत आशावादी होना समझदारी नहीं होगी.
विश्व परमाणु समुदाय में भारत हाल ही में शामिल हुआ है. के-4 को तकनीकी-सामरिक परिवेश में रखने के लिए कुछ इतिहास को देखना भी जरूरी होगा. एसएलबीएम के मामले में, अमरीका और रूस अलग लीग में हैं. 1980 के मध्य में, शीत युद्ध के चरम पर इन दोनों देशों ने एसएसबीएन (न्यूक्लियर पावर्ड बैलिस्टिक मिसाइल कैरइंग सबमरीन) पर तैनात, 12000 किमी रेंज और 100 मीटर सीईपी वाली एसएलबीएम तैनात की थीं.
पानी के अंदर परमाणु निवारक के लिहाज से, ब्रिटेन और फ्रांस को मध्यम श्रेणी की परमाणु शक्तियों के तौर पर देखा जाता है और यह दोनों अमरीका के सामरिक गुट के सदस्य भी माने जाते हैं. चीन ने 1964 में अपनी परमाणु क्षमताओं के बारे में घोषणा की थी और अक्टूबर 1982 में पहली बार, एसएलबीएम का परीक्षण किया था. चीन की जेएल-1 की उस समय 1700 किमी की मारक क्षमता थी.
पिछले कुछ दशकों मे चीन ने अपनी पनडुब्बियों और पानी के नीचे की परमाणु निवारक क्षमता पर काफ़ी पैसा खर्च किया है. नवंबर 2018 में, चीन ने 9,000 किमी रेंज वाली अपनी जेएल-3 मिसाइल का परीक्षण किया और यह अनुमान है कि, 2025 आने तक चीन इस मिसाइल को सफलता पूर्वक जहाज (एसएसबीएन) के साथ जोड़ सकेगा.
भारत द्वारा अपनी पानी के अंदर परमाणु निवारक क्षमता को मज़बूत करने को, क्षेत्रीय और वैश्विक नजरिये से देखने के ज़रूरत है. भारत द्वारा पानी के अंदर अपने सामरिक क्षेत्र को बढ़ाने के बारे में पीएम मोदी ने 2016 में एक ट्वीट के जरिये बताया था.
उन्होंने लिखा था कि, 'भारत के गौरव, परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत ने अपनी पहली निवारक गश्त को कामयाबी से पूरा किया है.' इस ट्वीट ने पहली बार यह जाहिर किया था कि भारत ने पानी के अंदर निवारक क्षमता पाने की तरफ छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कदम बढ़ा दिए हैं. यहां छोटे कदम कहना गलत नहीं होगा, क्योंकि अरिहंत पर तैनात मिसाइल की रेज 750 किमी है और अगली एसएसबीएन नाव पर आने वाली मिसाइल की मारक दूरी इससे ज्यादा होने की जरूरत है. इस फासले को के-4 से साधने का लक्ष्य है.