एक मामूली सा राजा मस्जिद के ठीक बगल में मंदिर का निर्माण करवाता है, जिसके परिणामस्वरूप विरोध करने वाले मुसलमानों की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है और हालात दंगे की शक्ल ले लेते हैं. एक मां है जो इस बात से बेहद परेशान है कि उसकी बेटी अपने कॉलेज के परिसर में एक मुसलमान युवा से मिल रही है, क्योंकि वो एक ऐसे समुदाय से वास्ता रखता है जिसे मानने वाले 'हिंसक, क्रूर और ऐयाश' होते हैं, और कलकत्ता वासियों जैसे लोग, विशेष रूप से महिलाएं, जिनको 'आकर्षक और बेईमान' करार दिया जाता है, एक विशेष रूप उस खास महिला को जो अपनी सासु मां के द्वारा शादी में दिए हुए शुद्ध सोने के पदक को पिघलवा कर अपने लिए नाशपाती के आकार की झुमकों की एक जोड़ी बनवा लेती है.
अगर आज आप अपने चारों ओर देखें तो 1993 में विक्रम सेठ द्वारा लिखित ए स्युटेबल बॉय के दिनों से आजतक बहुत कुछ नहीं बदला है. इसी उपन्यास पर आधारित बीबीसी वन के लिए मीरा नायर द्वारा भारत की आजादी के तुरंत बाद 1951 के काल को एक शानदार और पूरी तरह से संतोषजनक रूपांतर की शक्ल देते हुए छह भाग वाली मिनी श्रृंखला के रूप में फिर से बनाया गया है.
हम हाल ही में गिराई हुई मस्जिद पर बनने वाले मन्दिर के भूमिपूजन के साक्षी हुए है. अंतर सामुदायिक संबंधों पर अभी भी डर और अविश्वास की छाप देखी जा सकती है. और हमें केवल रिया चक्रवर्ती के आस-पास होने वाले सोशल मीडिया पर चटखारे लेकर बंगाली महिलाओं पर की जाने वाली संदेह से भरी फब्तियां को याद करने की जरूरत है. ए स्युटेबल बॉय में मीरा नायर ने इसी तरह के कहकहे पर मजे लेते हुए मीनाक्षी चटर्जी मेहरा को बेहद कामुक रूप में चित्रित किया है, जो टोल्लीगंज क्लब में उसी सहजता से टैंगो नृत्य करती नज़र आती है जिस सहजता से अपने नाखूनों को उत्तेजक रंग की नेलपॉलिश लगवाती है और बिना हिचकिचाए एलान करती है: ये प्यार में डूबी हुई बिल्ली काटे जाने को तैयार है. वो भी बील्ली ईरानी द्वारा, जिसका नाम किसी अमीरजादे की तर्ज़ पर सोच समझकर रखा गया है.
एंड्रू डेवीस द्वारा बीबीसी वन के लिए ए सूटेबल बॉय के रूपांतर में उनकी प्रिय लेखिका जेन ऑस्टेन की झलक नजर आती है, इसमें कोई हैरानी नहीं. लता की मां, रूपा मेहरा जो उसके लिए एक माकूल लड़का ढूंढ रही है, उनके व्यवहार में श्रीमती बेन्नेट साफ दिखाई देती हैं, जो चाहती हैं कि उनकी बेटियों की शादी अच्छे घरों में हो जाए. हालांकि नायर द्वारा नाटकीय रूपांतर कई छोटे विवरणों को नजरअंदाज करता है, जैसा कि इस तरह के एक विशाल उपन्यास में होने की उम्मीद है, लेकिन जब मौजूदा मुद्दों को उस काल से जोड़कर दर्शाने की बात आती है तो वो बखूबी किया गया है.
नवाब साहब जो स्थानीय जमींदार है और अपने परिवार के खिलाफ जाकर विभाजन के बाद भारत में रहना चुनते हैं, उनको लेकर एक 'मुस्लिम पहचान के मुद्दे' भी उठाया गया है, वे राजस्व मंत्री महेश कपूर, जो क्रांतिकारी जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के रचैयता हैं, के करीबी दोस्त हैं. इसमें महिला सशक्तिकरण का मुद्दा भी है, जहां लता अपनी शादी के बाद पढ़ाना शुरू करने के लिए उत्सुक है ताकि उसकी शिक्षा व्यर्थ न जाए.