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74th Republic Day से पहले जानें, एक सीजन में 10 हजार तिरंगा बनाने वाले परिवारों को कहां से मिलती है प्रेरणा

बिहार के गया में कई ऐसे परिवार हैं जो आजादी के बाद से ही राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा बनाने के काम से जुड़े हुए हैं. पीढ़ी-दर-पीढ़ी तिरंगा बनाने में वे खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. खास बात यह है कि उन्होंने अपने घर के युवाओं को तिरंगा सिलने और उस पर अशोक चक्र छापने का प्रशिक्षण भी दिया है.

74th Republic Day
प्रतिकात्मक चित्र

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Published : Jan 21, 2023, 10:22 AM IST

गया (बिहार): बिहार के गया जिले में गणतंत्र दिवस की तैयारी जोरों पर हैं. यहां कई मुस्लिम परिवार राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को सिलने और उसमें अशोक चक्र बनाने में लगे हुए हैं. ये सभी परिवार दशकों से यह काम करते आ रहे हैं. ऐसे ही तिरंगा बनाने वाले कारीगरों से ईटीवी भारत के प्रतिनिधि ने तिरंगा बनाने को लेकर खास बातचीत की है. इन कारीगरों में गयामनपुर निवासी 55 वर्षीय मोहम्मद गुलाम मुस्तफा ने कहा कि अपने देश भारत की शान से जुड़ा काम करना उनके लिए गर्व की बात है. उन्होंने बताया कि वह 40 साल से इस काम में लगे हुए हैं. पहले यह काम उनके पिता करते थे. उनसे ही गुलाम मुस्तफा ने यह काम सीखा.

मोहम्मद गुलाम मुस्तफा खादीग्राम उद्योग मानपुर में काम करते हैं. गुलाम मुस्तफा के बनाये हुए तिरंगों को खादी ग्राम उघोग मगध कमिश्नरेट के सभी पांचों जिलों में पहुंचता है. हर 26 जनवरी और 15 अगस्त को पांचों जिले के सभी प्रमुख स्थलों पर गुलाम मुस्तफा का बनाया तिरंगा ही फहराया जाता है. यहां गुलाम मुस्तफा को खादी ग्राम उद्योग प्रति तिरंगा के हिसाब से मजदूरी देता है. सीजन में (26 जनवरी और 15 अगस्त के आसपास) उनकी दैनिक आय 500 से 600 रुपये तक होती है. हालांकि, गुलाम मुस्तफा को इस बात का मलाल जरा भी नहीं है कि उन्हें तिरंगा बना कर अच्छी आमदनी नहीं होती है. वह कहते हैं कि तिरंगा बनाना उनके लिए शान की बात है.

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उन्होंने कहा कि उनके पिता ने उन्हें बताया था कि हमें कितनी कुर्बानियों और शहादतों के बाद आजादी मिली और तिरंगा हमारे लिए कितना अहम है. उन्होंने कहा कि वह यह काम तब तक करते रहेंगे जब तक उनके शरीर में क्षमता रहेगी. तिरंगा बनाते हुए वह आमदनी की नहीं सोचते. गुलाम मुस्तफा ने कहा कि सिर्फ इस साल ही उन्होंने अपने रिश्तेदारों के साथ 10 हजार से अधिक झंडे बना चुके हैं. गुलाम मुस्तफा का कहना है कि तिरंगा सिलने का बिजनेस उन्हें विरासत में मिला है. उन्होंने अपनी विरासत अपने बेटे मुहम्मद राजा को सौंपी है.

उन्होंने कहा कि तिरंगा हमारी पहचान और प्रतीक है. इससे प्यार करना हमारा फर्ज है. गुलाम मुस्तफा के मुताबिक उनका परिवार आजादी के बाद से ही राष्ट्रीय ध्वज की सिलाई में लगा हुआ है, वहीं एक अन्य सिलाई कारीगर मोहम्मद मुस्तफा ने भी राष्ट्रीय ध्वज के प्रति अपने प्यार का इजहार करते हुए कहा कि इससे उनकी रोजी-रोटी भी जुड़ी है. 40 वर्षीय मुहम्मद मुस्तफा करीब आठ साल से राष्ट्रीय ध्वज की सिलाई कर रहे हैं. मानपुर के खादी ग्राम अभियान केंद्र में तीन अन्य मुस्लिम युवक गुलाम मुस्तफा के साथ तिरंगे की सिलाई करते हैं. जबकि एक अन्य मुस्लिम परिवार खादी ग्राम उद्योग से मिले हुए तिरंगे पर 'अशोक चक्र' उकेरता है.

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गया शहर के प्रसिद्ध गंज मोहल्ला की सीमा परवीन और उनका परिवार भी दशकों से तिरंगे पर अशोक चक्र उकेरने का काम कर रहा है. सीमा परवीन की तीसरी पीढ़ी तक यह काम पहुंच चुका है, पहले उनके ससुर काम करते थे, अब उनके पति मुहम्मद शमीम और उनके बच्चे मुहम्मद सद्दाम, मुहम्मद नवाब और मुहम्मद शारख अशोक चक्र छापने का काम कर रहे हैं. सीमा परवीन के अनुसार अपने ससुर की मृत्यु के बाद उनके पति मोहम्मद शमीम ने चक्रों की छपाई की परंपरा को आगे बढ़ाया है.

गौरतलब है कि गया जिले के 'खादी ग्राम उद्योग मानपुर' से हजारों तिरंगे बनते हैं. खादी के कपड़े से बना तिरंगा गया जिले के अलावा नवादा, औरंगाबाद, जहानाबाद, अरुल और अन्य जिलों में जाता है. सीमा परवीन और मोहम्मद मुस्तफा के मुताबिक नई मशीनों और पॉलिएस्टर के कपड़े से बनने वाले तिरंगे की डिमांड बढ़ी है लेकिन खादी की टक्कर में यह अभी तक नहीं आया है. खादी ग्राम उद्योग समिति के लोग भी इन शिल्पकारों के जज्बे की सराहना करते हैं.

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खादी ग्राम अधियोग समिति के सचिव सुनील कुमार का कहना है कि गुलाम मुस्तफा वर्षों से यहां काम कर रहे हैं और बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि पांचों जिलों के सभी जिले मगध आयुक्तालय के प्रत्येक जिले से औसतन 3000 तिरंगे की मांग होती है जिसे इन कारीगरों द्वारा पूरा किया जाता है, खादी केंद्र में चार आकार के तिरंगे बनाए जाते हैं जिनकी कीमत अलग-अलग होती है.

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