बेंगलुरु : भारतीय जनता पार्टी को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में आशातीत सफलता नहीं मिली. कर्नाटक के उपचुनाव में बेलगावी समेत विधानसभा की एक सीट भाजपा को जरूर मिली. परिणाम बताते हैं कि भाजपा का जनाधार दरक रहा है. राज्य में मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है.
पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में भाजपा हाथ मलती रह गई. ऐसा लगता है कि सात साल तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद भाजपा के कठिन दिन आने लगे हैं. मोदी के शासन काल में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, केरल और कर्नाटक को सबसे अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जब से मोदी पीएम बने हैं, तब से इन राज्यों का दबाव मोदी पर काम नहीं कर रहा है. पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तमिलनाडु की भी वैसी ही स्थिति है.
भाजपा को यह अहसास हो गया है कि 2019 में जहां-जहां पर उन्हें अधिकतम सीटें मिलीं हैं, 2024 में वैसी ही सफलता नहीं मिलने वाली है. 2019 में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली थी. इसलिए पार्टी ने पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल पर पूरा फोकस किया. 2019 में सीपीएम ने अंदर खाने भाजपा को सपोर्ट कर दिया था. वह टीएमसी पर दबाव बनाना चाह रही थी. लेकिन इस बार विधानसभा चुनाव में सीपीएम ने उनका साथ नहीं दिया. ममता ने बाहरी और बंगाली का दांव चल दिया. भाजपा की सारी रणनीति फेल हो गई.
अब भाजपा नेताओं की चिंताएं बढ़ने लगीं हैं. पार्टी जहां पर सत्ता में है और जहां पर पार्टी की अभी हार हुई है, इसने भाजपा की धड़कनें तेज कर दी हैं.
तमिलनाडु में एआईएडीएमके सुप्रीमो जयललिता के निधन के बाद भाजपा अप्रत्यक्ष तरीके से पार्टी को नियंत्रित कर रही थी. भाजपा की मंशा एआईएडीएमके के वोट बैंक पर पूरा नियंत्रण करना था. लेकिन स्टालिन की जीत ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया.
डीएमके और टीएमसी हमेशा से ही तीसरे मोर्चे को आगे करने में अहम भूमिका निभाती रही है. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कहा कि पैसा, ताकत, षडयंत्र और दबाव क्षेत्रीय आकांक्षाओं का दमन नहीं कर सकती है. जेडीएस फिर से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेगी.
कुमारस्वामी ने कहा कि जेडीएस की तरह ही डीएमके भी लगातार बढ़ता रहा है. सत्ता में बिना रहे भी पार्टी ने राजनीतिक जज्बे को जारी रखा.
उन्होंने कहा कि पांच राज्यों के चुनाव परिणाम ने फिर से क्षेत्रीय स्वाभिमान की रक्षा की है. यह दिखाता है कि कैसे क्षेत्रीय नेता लोगों के दिल जीतते हैं.
केंद्र के अड़ियल रवैए और जीएसटी के पैसे पर रोक की वजह से इन राज्यों के मुख्यमंत्री चिढ़ गए थे. जीएसटी में उनके हिस्से को रिलीज नहीं करने पर प.बंगाल, केरल, तेलंगाना और ओडिशा ने खुलकर केंद्र के खिलाफ अप्रसन्नता जाहिर की. ऊपर से कोविड के खिलाफ केंद्र ने जिस तरह का रवैया अपना रखा है, उससे नाराजगी और अधिक बढ़ गई. यही वजह है कि सभी दल अब चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक हो जाया जाए. कांग्रेस में भाजपा के खिलाफ लड़ने की शक्ति नहीं रही है. पार्टी लगातार अपना स्टेटस खोती जा रही है. ऐसे में तीसरा मोर्चा ही जनता को विकल्प दे सकता है.
2018 में कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्ष के सभी नेता एकजुट हुए थे. लेकिन 2019 के चुनाव परिणाम ने सबको हताश कर दिया. ममता बनर्जी, मायावती, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, चंद्रबाबू नायडू और केसी आर के सपने अधूरे रह गए.
2019 में कुछ ही क्षेत्रीय पार्टियों ने महागठबंधन के प्रति अपनी इच्छा जताई थी. पीएम पद को लेकर सहमति नहीं बन पाई थी. केसीआर ने महागठबंधन से अपने आपको दूर कर लिया था. मायावती ने कांग्रेस का विरोध किया. शरद पवार भी बहुत अधिक उत्सुक नहीं थे. सीपीएम भी कांग्रेस के साथ जाने से कतरा रही थी. लिहाजा महागठबंधन अस्तित्व में नहीं आ सका.