नई दिल्ली : सीमा रेखा पर भारत-चीन सैन्य वृद्धि को तेज करने के बाद भारत और जापान ने आधारभूत संरचना खड़ा करने के लिए रणनीतिक कदम उठाए हैं. जो भारत के पूर्वोत्तर में प्रभाव फैलाने के चीनी प्रयासों को झटका देगा. साथ ही आगे भारत की प्रमुख 'एक्ट ईस्ट पॉलिसी' को भी संजीवनी प्रदान करेगा.
बहुत कुछ 1826 के यंडाबू की संधि की तरह है, जिसने ब्रिटिश भारत को सुदूर पूर्व के साथ आगे के संबंधों के लिए म्यांमार के तटों तक पहुंच प्रदान की थी. साथ ही असम, मणिपुर और नागा हिल्स पर ब्रिटिश नियंत्रण की अंतिमता स्थापित हुई. कुछ ऐसी ही कल्पना भारत और जापान द्वारा की जा रही है. असम, मणिपुर और नागालैंड के विद्रोह के साथ भारत-चीन और सुदूर पूर्व की सड़कें पहले से कहीं अधिक शांति के लिए चिह्नित की गई हैं.
समावेशी इंडो-पैसिफिक की वकालत
बीते सोमवार को असम की राजधानी गुवाहाटी में एक बैठक हुई, जिसमें भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर, भारत में जापान के राजदूत सुजुकी सातोशी के अलावा असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल सहित कई नेताओं ने भाग लिया. राजदूत सुजुकी ने अपने संबोधन में कहा कि जापान हमेशा अपनी कूटनीति में एक नयनाभिराम दृष्टिकोण रखता है. एक स्वतंत्र, खुले और समावेशी इंडो-पैसिफिक (एफओआईपी) की दृष्टि इसके केंद्र में है और असम सहित भारत का उत्तर पूर्व इस दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है.
बुनियादी ढांचे के विकास की दरकार
जापानी दूत का बयान दोनों देशों के बीच बुनियादी ढांचे, नवीकरणीय ऊर्जा और लोगों से जुड़ाव के साथ सर्वांगीण विकास की साझा प्रतिबद्धता पर आधारित रणनीतिक सहयोग की द्योतक है. उद्देश्य यह है कि पूर्वोत्तर और असम में विशेष रूप से चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में मददगार होगा. यह कदम एक बहु-ध्रुवीय एशिया की इच्छा को रेखांकित करना चाहता है, न कि चीन के प्रभुत्व वाले एशिया की. भारत और जापान पहले से ही अमेरिका समर्थित ग्रुप क्वाड समूह का हिस्सा हैं. जिसमें से ऑस्ट्रेलिया भी एक हिस्सा है. 'क्वाड' को चीन विरोधी मंच माना जाता है जो पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विरासत थी.