हैदराबाद: बीते रविवार 12 सितंबर को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को एक बार फिर आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक की जिम्मेदारी दी गई है. हालांकि कभी केजरीवाल के अपने रहे आज के विरोधी उनके पार्टी संयोजक बनने पर सवाल उठा रहे हैं. केजरीवाल के पार्टी संयोजक यानि पार्टी सुप्रीमो बनने पर क्यों सवाल उठ रहे हैं ? आम आदमी पार्टी ने केजरीवाल को फिर से चुनकर क्या ऐसा कुछ कर दिया है जो पहले कभी ना हुआ हो ? क्या दूसरे राजनीतिक दलों में ऐसा नहीं होता है. जानने के लिए पढ़िये ईटीवी भारत एक्सप्लेनर (etv bharat explainer)
केजरीवाल पर किसने उठाए सवाल ?
केजरीवाल को पार्टी की कमान फिर से देने के फैसले को लेकर वो लोग सवाल उठा रहे हैं जो कभी अरविंद केजरीवाल के खास हुआ करते थे और आम आदमी पार्टी के साथ हुआ करते थे. पत्रकार से नेता बनकर आम आदमी पार्टी से जुड़ने और फिर अलग होने वाले आशुतोष ने ट्वीट कर केजरीवाल को फिर से संयोजक बनाने पर सवाल उठाए हैं. सीधा सवाल केजरीवाल से था कि क्या अगर कोई दूसरा पार्टी का संयोजक बनता तो उनकी ताकत कम हो जाएगी या फिर पार्टी पर किसी दूसरे के कब्जे का डर है.
केजरीवाल पर क्यों उठे सवाल ?
आम आदमी पार्टी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, लगभग हर कोई इस पार्टी की शुरुआत को जानता है. अन्ना आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी का गठन साल 2012 में हुआ. तब से अरविंद केजरीवाल ही पार्टी के संयोजक हैं, संयोजक यानि पार्टी के अध्यक्ष या सुप्रीमो. अरविंद केजरीवाल को एक बार फिर पांच साल के लिए अध्यक्ष बनाया गया है और इसके लिए बकायदा पार्टी के संविधान में बदलाव किए गए हैं.
पार्टी के गठन के वक्त 'आप' का एक संविधान भी बनाया गया था, जिसके मुताबिक एक व्यक्ति दो बार से ज्यादा पार्टी का संयोजक नहीं बन सकता है. इस नियम कायदे को बकायदा बदला गया है ताकि केजरीवाल पार्टी के सर्वेसर्वा बने रहे. पहले कार्यकाल तीन साल का था उसे बढ़ाकर पांच साल कर दिया गया है. अपने ही नियम कायदों को तोड़ने मरोड़ने को लेकर केजरीवाल पर सवाल उठ रहे हैं.
अरविंद केजरीवाल तीसरी बार बने आम आदमी पार्टी के संयोजक
वैसे 2012 में शायद खुद केजरीवाल को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि वो एक पार्टी बना लेंगे जो दिल्ली में सरकार तक बना लेगी और वो लगातार तीन बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो जाएंगे. इसलिये जो नियम उस वक्त बनाए गए उन्हें अब तोड़ा मरोड़ा जा रहा है.
क्या अरविंद केजरीवाल ऐसे अकेले नेता हैं ?
अरविंद केजरीवाल पिछले करीब एक दशक से अपनी पार्टी के मुखिया के पद पर बने हुए हैं. लेकिन सवाल है कि क्या अरविंद केजरीवाल ऐसे अकेले नेता हैं, जो इतने लंबे वक्त से दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में किसी सियासी दल के सर्वेसर्वा इतने लंबे वक्त तक बने बैठे हैं. गांधी परिवार से लेकर यादव परिवार और चौटाला परिवार से लेकर बादल परिवार तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक ऐसे सियासी दलों की भरमार है, जहां सालों साल पार्टी पर किसी एक परिवार या चेहरे का दबदबा बना हुआ है.
वो सियासी दल, जिनका एक परिवार है कर्ता धर्ता
क्षेत्रीय दलों का हाल और भी बुरा है, जहां पार्टियां किसी एक परिवार की बनकर रह गई हैं और ये परिवार उस सूबे के सियासी गलियारों में अपना दबदबा कायम रखे हुए हैं. ऐसे ज्यादातर पारिवारिक पार्टियों ने तो अपने-अपने राज्यों में सत्ता का चरम भी देखा है और लंबे वक्त तक उसे भोगा है. देशभर में ऐसे दलों की फेहरिस्त बहुत लंबी हैं लेकिन उनमें से कुछ हैं.
कांग्रेस- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कमान भले एक राष्ट्रीय पार्टी हो और कई चेहरों ने वक्त-वक्त पर इसकी कमान संभाली हो लेकिन बीते कई दशकों से इस पार्टी पर गांधी परिवार की पार्टी कहा जाता है. बीते 23 साल से सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही इस पार्टी के अध्यक्ष हैं. इससे पहले भी पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक इस पार्टी के कर्ता धर्ता रह चुके हैं.
बहुजन समाज पार्टी- इस दल का गठन कांशीराम ने 1984 में किया था और साल 2001 से मायावती ही इस पार्टी की सर्वेसर्वा हैं. उनके अलावा फिलहाल कोई भी इस पार्टी की अगुवाई करने की सोच भी नहीं सकता. मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं. साल 2002 और 2007 में सीएम होने के साथ-साथ पार्टी सुप्रीमों का पद भी उन्होंने अपने पास रखा.
समाजवादी पार्टी-उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने साल 1992 में पार्टी का गठन किया. सूबे के मुख्यमंत्री रहते हुए भी वो पार्टी के मुखिया बने रहे और 2017 से उनके बेटे अखिलेश यादव पार्टी के सुप्रीमो हैं.
इंडियन नेशनल लोक दल- हरियाणा के इस क्षेत्रीय दल का गठन देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल ने साल 1996 में किया था. चौधरी देवीलाल के बाद बीते कई सालों से उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला पार्टी सुप्रीमो के पद पर हैं. ओम प्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं.
जननायक जनता पार्टी- इनेलो सुप्रीमो ओम प्रकाश चौटाला के दो बेटे हैं. अजय चौटाला और अभय चौटाला. अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला इनेलो से सांसद भी रह चुके हैं लेकिन सियासत ने परिवार के रिश्तों में ऐसी दरार डाली की दुष्यंत चौटाला ने जननायक जनता पार्टी बना ली और साल 2019 में हरियाणा में विधानसभा चुनाव लड़ा. फिलहाल हरियाणा में बीजेपी और जेजेपी गठबंधन की सरकार है और दुष्यंत चौटाला हरियाणा के डिप्टी सीएम हैं.
राष्ट्रीय जनता दल- राष्ट्रीय जनता दल की शुरुआत साल 1997 में हुई और लालू प्रसाद यादव पार्टी के संस्थापक सदस्यों में हैं. लेकिन पार्टी पर लालू प्रसाद यादव के परिवार का ही दबदबा है, लालू प्रसाद यादव पार्टी के लाइफटाइम अध्यक्ष हैं. इसी पार्टी से लालू प्रसाद यादव लगातार 3 बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे लेकिन इस दौरान भी ये पद उन्हीं के पास रहा.
राष्ट्रीय लोक दल- पूर्व केंद्रीय मंत्री अजीत सिंह ने साल 1996 में पार्टी का गठन किया. पहले अजीत सिंह पार्टी के अध्यक्ष रहे और अब उनके बेटे जयंत चौधरी पार्टी सुप्रीमो हैं. इस पार्टी की बदौलत अजीत सिंह केंद्र में मंत्री और जयंत चौधरी सांसद रह चुके हैं.
लोक जनशक्ति पार्टी-बिहार के इस क्षेत्रीय दल का गठन पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान ने किया था. इस पार्टी के सहारे वो हर सरकार में मंत्री बनते रहे. राम विलास पासवान के निधन के बाद उनके बेटे चिराग पासवान पार्टी के अध्यक्ष बने, लेकिन बीते विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी में ऐसा दो फाड़ हुआ कि पार्टी की कमान रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस के हाथ में पहुंच गई.
जनता दल (सेक्युलर)- जनता दल से अलग होकर देश के पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने कर्नाटक में साल 1999 में जनता दल सेक्युलर पार्टी का गठन किया. बीते 22 साल से वो पार्टी के सर्वेसर्वा हैं और इस बीच उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी दो बार राज्य के मुख्यमंत्री बन चुके हैं.
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी-कांग्रेस पार्टी से अलग होकर एनसीपी या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी साल 1999 में अस्तित्व में आई थी. शरद पवार इसके संस्थापक सदस्यों में रहे और अब तक पार्टी के अध्यक्ष बने हुए हैं.
शिवसेना- महाराष्ट्र की इस क्षेत्रीय पार्टी का गठन बाला साहब ठाकरे ने साल 1966 में किया था. बाल ठाकरे के बाद उनके बेटे उद्धव ठाकरे पार्टी की कमान संभाल रहे हैं. वो पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष भी रहे, फिलहाल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष दोनों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं.
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना- इस क्षेत्रीय दल का गठन साल 2006 में राज ठाकरे ने किया. जो बाल ठाकरे के भतीजे थे लेकिन पार्टी और परिवार में अंदरूनी कलह के कारण शिवसेना और परिवार दोनों से अलग हो गए थे. पिछले 15 साल से राज ठाकरे ही पार्टी के कर्ता धर्ता हैं.
शिरोमणि अकाली दल- साल 1920 में अस्तित्व में आए शिरोमणि अकाली दल ने 1945 से सियासी या यूं कहें चुनावी मैदान में कदम रखा. पार्टी के मुखिया इस दौरान बदलते रहे लेकिन पिछले करीब 3 दशक से इसपर बादल परिवार का दबदबा है. साल 1996 से 2008 तक पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल पार्टी सुप्रीमो रहे, जिसके बाद सुखबीर बादल पार्टी की कमान संभाल रहे हैं.
तेलंगाना राष्ट्र समिति- इस पार्टी का गठन अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर हुआ था, साल 2001 में के चंद्रशेखर राव ने पार्टी का गठन किया. 2014 में अलग राज्य बनने के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में टीआरएस पार्टी को जीत मिली और के चंद्रशेखर राव राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने. फिलहाल मुख्यमंत्री के रूप में उनका दूसरा कार्यकाल चल रहा है और पार्टी के अध्यक्ष भी हैं. उनके बेटे राज्य कैबिनेट में मंत्री हैं.
वाईएसआर कांग्रेस- पार्टी का गठन साल 2011 में वाईएस जगन मोहन रेड्डी ने किया, उनके पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. पिता कांग्रेस में थे लेकिन पार्टी से मनभेद हुआ तो जगन मोहन ने नई पार्टी बना ली और साल 2019 विधानसभा चुनाव में बंपर जीत हासिल कर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.
एआईएमआईएम- 1920 में पार्टी का गठन हुआ. इस पार्टी का कर्ता धर्ता ओवैसी परिवार ही है. साल 2008 से इस पार्टी के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी हैं. इससे पहले उनके परिवार के लोगों के हाथ ही पार्टी की कमान रही. असदुद्दीन ओवैसी इस वक्त हैदराबाद से सांसद हैं जबकि उनके भाई इसी पार्टी से विधायक हैं.
कभी अपने रहे लोग ही केजरीवाल की नीयत और पार्टी की नीतियों पर उठाते हैं सवाल
आखिर सिर्फ केजरीवाल से क्यों हो रहे हैं सवाल ?
इस पूरी उधेड़बुन में ये सवाल सबसे अहम है कि सिर्फ अरविंद केजरीवाल से ही ये सवाल क्यों उठाया जा रहा है. दरअसल अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का जन्म एक आंदोलन की बदौलत हुआ है, जिसका गवाह पूरा देश रहा. खासकर राजधानी दिल्ली के गलियारे इसके सबसे बड़े चश्मदीद हैं. जहां बड़े-बड़े सियासतदानों को पटखनी देकर एक आम आदमी दिल्ली का मुख्यमंत्री बन जाता है.
केजरीवाल को आम आदमी पार्टी का इकलौता राष्ट्रीय चेहरा कह सकते हैं
दरअसल केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का साथ छोड़ चुके लोग केजरीवाल की नीयत पर सवाल उठाते हैं. उनके मुताबिक जब आंदोलन की बदौलत पार्टी अस्तित्व में आई तो पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र, हाईकमान कल्चर का विरोध और पारदर्शिता पर जोर दिया गया. इन तीनों चीजों को हथियार बनाकर ही आम आदमी पार्टी ने दूसरे दलों को चारों खाने चित किया और लोगों के दिलों में जगह बनाई. बकायदा संविधान में एक पद पर एक व्यक्ति के दो बार से ज्यादा ना रहने और एक ही परिवार के दो लोगों को पदों पर ना बैठाने का जिक्र किया गया. लेकिन अब संविधान में संशोधन करके संयोजक के कार्यकाल की अवधि तीन साल से पांच साल कर दी गई है और दो कार्यकाल की बात को भी खत्म कर दिया गया है.
फिर केजरीवाल 'आप' में और बाकियों में क्या फर्क रह गया ?
अब सवाल है कि दूसरी पार्टियों की परिवारवाद, भ्रष्टाचार या एक चेहरे के कब्जे वाली नीतियों को आइना दिखाकर सियासत में उतरी आम आदमी पार्टी दूसरे दलों से कैसे अलग है ? अरविंद केजरीवाल उन नेताओं से कैसे अलग हैं जो पार्टी पर कब्जा जमाए बैठे हैं. यही आशुतोष जैसे लोगों की टीस है.
आशुतोष ने ट्वीट कर वही वाजिब सवाल पूछा है जो कईयों के मन में उठ रहा होगा कि आखिर किसी और को पार्टी के संयोजक की जिम्मेदारी क्यों नहीं दी गई? क्या ऐसा करने से अरविंद केजरीवाल की छवि, कद या ताकत कम हो जाता ? क्योंकि अरविंद केजरीवाल के मुताबिक वो तो कभी इस ताकत, कुर्सी या पद के लिए राजनीति में आए ही नहीं थे और अगर केजरीवाल भी वही करेंगे जो परिवारों वाली पार्टियां करती आई हैं तो फिर फर्क कहां रह जाता है ? वो फर्क जो आम आदमी पार्टी के गठन के वक्त दिखाया गया था.
तीसरी बार केजरीवाल को संयोजक बनाना पार्टी की मजबूती है या मजबूरी ?
केजरीवाल की मजबूरी है या फिर...
आम आदमी पार्टी यानि अरविंद केजरीवाल और अरविंद केजरीवाल मतलब आम आदमी पार्टी, एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं. अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही दिल्ली में लगातार दूसरी बार आम आदमी पार्टी ने अपने दम पर सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की है. वो देशभर में अपनी पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है. राजनीति विश्लेषकों के मुताबिक लगातार तीन बार से दिल्ली के मुख्यमंत्री होने से उनका रुतबा और भी बढ़ा है. लेकिन वो कल भी अपनी पार्टी के अकेले सुपर स्टार थे और आज भी हैं, इसलिये संयोजक पद पर बने रहना उनकी मजबूरी है, जिसके पीछे कई कारण हैं.
1) सिर्फ दिल्ली की पार्टी का तमगा- आम आदमी पार्टी साल 2012 से दिल्ली पर राज कर रही है इसके अलावा उसकी सबसे मजबूत स्थिति पंजाब में है. जहां साल 2014 आम चुनाव में उसके 4 सांसद बने और 2019 लोकसभा चुनाव में इकलौता सांसद भी इसी पंजाब से आया. 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया और मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल किया. दिल्ली और पंजाब को छोड़ दे तो फिलहाल दूर-दूर तक पार्टी का कोई नामो निशान नहीं है.
दिल्ली पंजाब के बाद दूसरे राज्यों में विस्तार की तैयारी में पार्टी
2) दूसरे राज्यों में विस्तार का मौका- अगले साल सात राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं. जिनमें से ज्यादातर राज्यों में आम आदमी पार्टी ने चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है. ऐसे में पार्टी के विस्तार के लिए अरविंद केजरीवाल से बड़ा चेहरा नहीं हो सकता. इन राज्यों में पार्टी के विस्तार की रणनीति को अमलीजामा पहनाने की जिम्मेदारी संयोजक के नाते अरविंद केजरीवाल बखूबी निभा सकते हैं.
3) दूसरी कतार के नेताओं की कमी-आम आदमी पार्टी अभी महज़ 9 साल पुरानी पार्टी है. अरविंद केजरीवाल के अलावा मनीष सिसौदिया और कुछ मंत्री ही उनकी पार्टी के चेहरे हैं हालांकि वो सभी केजरीवाल की तरह सर्वमान्य या चर्चित नहीं है. पार्टी में दूसरी कतार के नेताओं की अभी कमी है और हालांकि इतने कम वक्त में इसकी कल्पना करना भी जल्दबाजी है. आम आदमी पार्ट ने 2014 लोकसभा चुनाव में देश की करीब 400 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन ज्यादातर उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाए थे. 2019 में सिर्फ 40 सीटों पर चुनाव लड़ा और एक सीट पर जीत हासिल की. जानकार मानते हैं कि अगर पार्टी पर सिर्फ दिल्ली का तमगा नहीं लगे रहने देना तो युवा और दूसरी कतार की लीडरशिप तैयार करनी होगी, वो भी कई राज्यों में एक साथ.
'आप' के पास बड़े चेहरों का टोटा
4) बड़े चेहरों का साथ छोड़ना- आम आदमी पार्टी की शुरुआत के वक्त कई नामी और बड़े चेहरे साथ जुड़े थे लेकिन वक्त के साथ पार्टी छोड़ते चले गए. कुमार विश्वास से लेकर आशुतोष और योगेंद्र यादव से लेकर प्रशांत भूषण और अलका लांबा तक कई नाम इस फेहरिस्त में शामिल हैं. केजरीवाल मानें या ना मानें लेकिन इन चेहरों के जाने से पार्टी को नुकसान तो हुआ है, वक्त-वक्त पर पार्टी छोड़ने वाले नेताओं ने पार्टी की अंदरूनी कलह समेत कई मुद्दों को जगजाहिर कर दिया, जिससे पार्टी की छवि को नुकसान ही हुआ है. साथ ही इन चेहरों के जाने से पार्टी में बड़े चेहरों का जैसे अकाल सा पड़ गया है.
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