हैदराबाद : 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन कृषि कानून वापस लेने की घोषणा कर दी. संसद के शीतकालीन सत्र में कानून निरस्त करने से संबंधित बिल पेश किया जाएगा. किसान नेता राकेश टिकैत ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने की मांग को लेकर अब भी आंदोलन की राह पर हैं. किसान नेता और राजनीतिक एक्सपर्ट मानते हैं कि रणनीतिक तौर से कानून निरस्त करने की कई वजहें हो सकती हैं, मगर सबसे बड़ा कारण पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं. पश्चिम उत्तरप्रदेश के बीजेपी नेताओं के फीडबैक के बाद पार्टी ने कृषि कानूनों पर यू-टर्न ले लिया.
पीएम मोदी ने कृषि कानून वापस लेने का किया ऐलान अब सवाल है कि आंदोलन सहारे आगामी विधानसभा चुनावों में लगे सियासी दलों और नेताओं का क्या होगा. क्योंकि किसान आंदोलन को लगभग-लगभग हर सियासी दल ने मुद्दा बनाया था. कृषि कानून वापसी के ऐलान के बाद कई राजनीतिक दलों की चुनावी प्लानिंग खराब हो गई. कई दलों का भविष्य भी किसान आंदोलन पर टिका हुआ है. कई किसान नेताओं की राजनीति इस आंदोलन पर टिकी है. करीब डेढ़ साल तक चले किसान आंदोलन में जिन राजनीतिक दलों ने मेहनत की, उसका फल उन्हें चुनाव में मिलेगा या नहीं. बीजेपी नेताओं का दावा है कि कृषि कानून वापस होने के बाद विपक्ष के हाथ से मुद्दा छिन गया. मगर पिछले एक साल में विपक्ष ने जिस तरह किसानों आंदोलन के जरिये पैठ बनाई, उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों में किसानों का मुद्दा बड़ा साबित हो सकता है.
जयंत को मिल सकता है महापंचायतों का लाभ : ऐसे नेताओं ने सबसे पहला नाम राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के नेता जयंत चौधरी का है. पिछले दो लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में खाली हाथ रहे जयंत आंदोलन के दौरान कई पंचायत में शामिल हुए. 2013 के मुजफ्फनगर दंगों के बाद जाट आरएलडी से दूर हो गए. मुसलमान वोटर भी सपा के पास पहुंच गए. मगर किसान आंदोलन के दौरान जयंत चौधरी और पार्टी के नेताओं ने महापंचायत कर अपने परंपरागत वोटरों के करीब पहुंच गए. जानकार मानते हैं कि इसका फायदा उन्हें मिल सकता है क्योंकि यूपी में किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा असर उसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पड़ सकता है जहां के सहारें आरएलडी सियासत की सीढ़ियां चढ़ती रही है.
क्या जयंत को मिलेगा फायदा या सपा का साथ जरूरी ? आरएलडी को करना होगा चुनावी गठबंधन : मई 2021 में आरएलडी नेता अजित सिंह का निधन हो गया था. इसके बाद जाट बिरादरी के स्थानीय नेताओं के बीच जयंत को लेकर सहानुभूति भी बढ़ी. बिरादरी के नेताओं का कहना है कि जयंत को केंद्रीय राजनीति में लाने के लिए जीत जरूरी है. हालांकि पॉलिटिकल एक्सपर्ट मानते हैं कि आरएलडी को अपनी पुरानी साख हासिल करने के लिए समाजवादी पार्टी से गठबंधन का रास्ता चुनना होगा.
कांग्रेस की नजर सिर्फ पंजाब पर प्रियंका का आंदोलन पंजाब केंद्रित था : कांग्रेस ने भी किसान आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. प्रियंका गांधी ने लखीमपुर खीरी में जिस तरह संघर्ष किया, उससे पार्टी ने नई छवि गढ़ी है. प्रियंका का आंदोलन पश्चिम उत्तरप्रदेश से ज्यादा सिख समुदाय पर केंद्रित रहा, लखीमपुर खीरी में भी सिखों की अच्छी खासी तादाद है. जहां राहुल और प्रियंका के अलावा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पंजाब के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी ने पीड़ित परिवारों को 50-50 लाख रुपये का मुआवजा दिया. पंजाब चुनाव में कांग्रेस को इससे कितना फायदा होगा, यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा.
समाजवादी पार्टी-उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने किसान आंदोलन और कृषि कानूनों का मसला तो उठाया लेकिन वो सोशल मीडिया और टीवी डिबेट से अलग धरातल पर कहीं दिखा ही नहीं. उधर मायावती की बहुजन समाज पार्टी का मानो कृषि कानून और किसान आंदोलन के मुद्दे से कुछ लेना-देना ही नहीं था.
आंदोलन से राकेश टिकैत का कद बढ़ा : किसान आंदोलन के दौरान राकेश टिकैत राष्ट्रीय स्तर के किसान नेता के तौर पर उभरे. उन्होंने हर मोर्च पर देश में किसानों का पक्ष रखा. मीडिया में आंदोलन का पक्ष रखने की बात हो या देश के राज्य-राज्य पहुंचकर कृषि कानून के खिलाफ और किसानों के पक्ष में माहौल बनाने से लेकर दिल्ली बॉर्डर तक उन्होंने आंदोलन को संभाले रखा. फिलहाल राकेश टिकैत इतने ताकतवर हैं कि वह किसी पॉलिटिकल पार्टी को समर्थन का ऐलान कर जाट बेल्ट में जीत-हार का फैसला कर सकते हैं.
अब लंबा चला आंदोलन तो लोकप्रियता गिरेगी : कृषि बिल वापस होने के बाद भी राकेश टिकैत न्यूनतम समर्थन मूल्य और मारे गए किसानों को मुआवजा देने की मांग पर अड़े हैं. सरकार ने उनसे बातचीत की पेशकश नहीं की है. टिकैत ने सरकार से बातचीत के बिना आंदोलन खत्म नहीं करने की चेतावनी दी है. यानी आंदोलन अभी चलता रहेगा. राकेश टिकैत ने पहले भी राजनीति दल बनाने या किसी पार्टी में शामिल होने से इनकार करते रहे हैं. मगर वह किसानों के अन्य मुद्दों पर आंदोलन करते रहेंगे. मगर अब किसान आंदोलन को लंबा खींचा गया तो उनकी मंशा पर सवाल उठेंगे और राजनीतिक ताकत पर असर पड़ेगा.
एक्सपर्ट मानते हैं कि केंद्र सरकार ने जिस तरह कानून वापस करने का मांग मान ली है, उससे ऐसा लगता है कि वह किसान नेताओं से बातचीत के बिना ही मुआवजा और एमएसपी पर घोषणा कर सकती है. अब केंद्र सरकार किसी किसी संगठन और नेता को आंदोलन का मौका नहीं देगी, जो भविष्य में भी भाजपा के लिए चुनौती बन सकते हैं.
गुरनाम सिंह चंढूनी बनाएंगे नई पार्टी ? नई पार्टी बनाने की तैयारी में किसान नेता चढ़ूनी : कृषि कानून विरोधी आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले किसान संयुक्त मोर्चा के सदस्य गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने पंजाब में चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. हालांकि संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) में शामिल पंजाब के 32 किसान संगठनों ने गुरनाम सिंह चढूनी से अपना मिशन पंजाब वापस लेने की मांग रखी है. गुरनाम सिंह हरियाणा के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बैठक कर चुके हैं. कृषि कानून वापस होने के बाद संभव है कि चढ़ूनी नई पार्टी का ऐलान कर दें.
अरविंद केजरीवाल- किसान आंदोलन के दौरान आम आदमी पार्टी भी किसानों को अपना बताती रही. पंजाब में मुख्य विपक्षी दल से सरकार बनाने का ख्वाब देख रही पार्टी इस बार उत्तर प्रदेश के सियासी दंगल में भी ताल ठोकने को तैयार है. हालांकि केजरीवाल के लिए किसानों का हित यूपी से ज्यादा पंजाब में मायने रखता है, ये वो पहले से जानते थे. इसलिये किसान आंदोलन की शुरुआत में समर्थन करने से लेकर किसानों को मेडिकल सुविधा पहुंचाने तक की पहल की थी. अब केजरीवाल का किसान प्रेम उन्हें कितनी सीटें दिलाएगा ये कुछ महीनों में पता चल जाएगा.
अकाली दल को फायदा हुआ या नुकसान ? शिरोमणि अकाली दल- पंजाब के किसान कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली घेरने निकले तो शिरोमणि अकाली दल ने एनडीए से रिश्ता तोड़ लिया और खुद को किसानों का हितैषी बताकर केंद्रीय मंत्री रहीं हरसिमरत कौर बादल ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. खुद को किसानों का हितैषी बताकर अकाली दल ने बीजेपी के साथ सियासी रिश्तेदारी तो तोड़ ली लेकिन अब जब कृषि कानून ही वापस लेने का ऐलान हो चुका है तो फिर शिरोमणि अकाली दल के सामने कई सवाल हैं.
पंजाब में दिख सकता है नया सियासी रिश्ता ? कैप्टन अमरिंदर सिंह- दो महीने पहले तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह आज कांग्रेस का हाथ छोड़कर अलग पार्टी बना चुके हैं. किसानों की बात पहले भी करते रहे हैं और अलग होकर नई सियासी पारी खेलने के लिए उन्हें भी किसानों का साथ चाहिए. बीजेपी के साथ हाथ मिलाने की अटकलों के बीच अमरिंदर सिंह ने किसान हित की शर्त रख दी थी. अब पीएम मोदी के ऐलान के बाद पंजाब की सियासत में बीजेपी और अमरिंदर सिंह की पार्टी का नया सियासी रिश्ता भी जन्म ले सकता है जो इस बार के पंजाब चुनाव में कम से कम तड़का तो जरूर लगा देगा.
बीजेपी- इस पूरे घटनाक्रम में अब बीजेपी खुद को फ्रंटफुट पर बता रही है, भले उसे कदम पीछे खींचने पड़े हों लेकिन बीजेपी को लग रहा है कि एक ही तीर से यूपी से लेकर पंजाब तक साध लिया है. हालांकि जानकार मानते हैं कि पंजाब में बीजेपी के पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है और यूपी में सबकुछ दांव पर लगा है. प्रधानमंत्री के मन की बात से लेकर टीवी डिबेट में बीजेपी प्रवक्ताओं और नेताओं की बयानों में अब तक इन कृषि कानूनों को किसानों का हितैषी बताया जाता है और विरोध करने वालों को खालिस्तानी से लेकर शाहीन बाग तक से जोड़ा गया लेकिन कृषि कानून वापसी के ऐलान के बाद सब कुछ 360 डिग्री घूम गया है. सियासी दलों से लेकर वोटरों तक और किसान नेताओं से लेकर किसान आंदोलन से जुड़े लोगों तक हर कोई इस फैसले से हैरान है. जानकार मानते हैं कि इससे बीजेपी को फायदा तो मिलेगा लेकिन कितना और कहां-कहां मिलेगा ये वक्त बताएगा.
पीएम मोदी ने कृषि कानून वापस लेने का किया ऐलान सबकी प्लानिंग धरी रह गई ?
19 नवंबर को पीएम मोदी के ऐलान के बाद किसान आंदोलन के सहारे सियासी माइलेज खोज रहे दलों और नेताओं को झटका तो लगा है. उनकी प्लानिंग धरी की धरी रह सकती है. क्योंकि जब तक केंद्र सरकार कानूनों को लेकर अड़ी रही तब तब सियासी दल किसानों के साथ खड़े रहकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले रखे. लेकिन अब जब कानून वापसी का ऐलान हो चुका है तो कईयों को कुछ सूझ नहीं रहा और कुछ एमएसपी से लेकर आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले किसानों के मुआवजे की मांग उठा रहे हैं. लेकिन सियासी जानकार मानते हैं कि पीएम मोदी ने कानून वापसी का ऐलान करके विपक्ष में खलबली तो मचा ही दी है, क्योंकि विपक्षियों को भी अब हर चाल देखकर चलनी होगी. क्योंकि किसानों की सबसे बड़ी मांग मानने के बाद भी आंदोलन पर अड़े रहना और किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर सरकार का शिकार करने की कोशिश उल्टी भी पड़ सकती है. जानकार मानती है कि बीजेपी की एक प्लानिंग ये भी है कि विपक्ष कुछ ऐसा करे और फायदा उसे मिल जाए.
लेकिन कुछ सियासी जानकार मानते हैं कि बीते एक साल में आंदोलन के दौरान कुछ सियासी दलों और नेताओं ने किसानों के बीच अपनी पैठ बनाई है और छवि को कुछ हद तक मजबूत भी किया है. अगर किसानों का समर्थन उन विपक्षी दलों को मिला तो बीजेपी को इस बड़े फैसले के बाद भी ठन-ठन गोपाल ही रहना पड़ सकता है. हालांकि जानकार मानते हैं कि इस तरह का वोट बैंक अगर विपक्षियों के पास टुकड़ों में बंटा भी तो बीजेपी को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं होगा. हालांकि 2022 में यूपी, पंजाब और गुजरात समेत कुल सात राज्यों में चुनाव हैं. ये मुद्दा कहां कितना काम करता है और किसके कितने काम आता है ये वक्त ही बताएगा.
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