सागर। एक तरफ आम जनता के खिलाफ वन विभाग कडे़ और सख्त कानून के साथ पेश आता है और दूसरी तरफ रिजर्व फॉरेस्ट और वनभूमि पर होने वाले निर्माण कार्यों में लापरवाही बरतता है, इसी वजह से हर साल दर्जनों वन्य प्राणी जहां हादसों का शिकार हो रहे हैं. वहीं हजारों पेड़ काटे गए हैं, इसका खुलासा आरटीआई के जरिए हुआ है, जिससे पता चला है कि पिछले 10 सालों में वनक्षेत्र में होने वाले निर्माण कार्यों के लिए जो वाइल्ड लाइफ क्लीयरेंस दी गयी है, उसका वन विभाग के पास कोई रिकॉर्ड नहीं है. हालत ये है कि अब वन विभाग ने सभी टाइगर रिजर्व और सेंचुरी के अलावा रिजर्व फॉरेस्ट को नोटिस भेज कर जबाब मांगा है. वहीं दूसरी तरफ वाइल्ड लाइफ एक्टिविस्ट वनविभाग के लापरवाह रवैये के खिलाफ भारत सरकार को शिकायत करने के साथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की तैयारी कर रहे हैं.
क्या है मामला:दरअसल वन और वन्यजीवों के लिए समर्पित संस्था प्रयत्न के संयोजक अजय दुबे ने आरटीआई के जरिए वनविभाग से जानना चाहा था कि पिछले 10 सालों में वनविभाग ने वनक्षेत्र खासकर टाइगर रिजर्व, सेंचुरी और नेशनल पार्क में निर्माण कार्य के लिए वाइल्ड लाइफ क्लीयरेंस दिए हैं, उनका रिकार्ड उपलब्ध कराए. लेकिन वनविभाग के पास ऐसा कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है कि किन आधार पर इन प्रोजेक्ट्स के लिए वन विभाग ने क्लीयरेंस दिया है. जबकि वाइल्ड लाइफ क्लीयरेंस भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भी भेजना होती है, ये खुलासा होने के बाद वन विभाग ने आनन-फानन में सभी वनमंडल, टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क और सेंचुरी के लिए आदेश जारी कर जानकारी मांगी है.
क्या महत्व है वनविभाग के क्लीयरेंस का:मध्यप्रदेश की बात करें तो देश में सर्वाधिक वनक्षेत्र होने के साथ टाइगर स्टेट, लेपर्ड स्टेट और चीता स्टेट के अलावा कई वन्यजीवों के संरक्षण के लिए जाना जाता है, ऐसी स्थिति में मध्यप्रदेश के वनक्षेत्र जिनमें टाइगर रिजर्व, अभ्यारण्य, वनमंडल के वनक्षेत्र में रेललाइन, सड़क, बांध, पावर प्रोजेक्ट जैसी निर्माण परियोजनाओं के लिए वनविभाग से क्लीयरेंस लेना होता है, जो शर्तों के आधार पर दिया जाता है, तब जाकर वाइल्ड लाइफ क्लीयरेंस जारी होता है. क्लीयरेंस की शर्तों का प्रधान मुख्य वन संरक्षक, वन्य प्राणी मुख्यालय और मैदानी अमलों द्वारा समय- समय पर निरीक्षण किया जाता है और कमी पाए जाने पर कार्रवाई की जाती है, इसके बाद वनविभाग सर्टिफिकेट जारी करता है, जिसे भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय को भी भेजा जाता है.