कोई सौ साल पहले, एक युवा भारतीय छात्र जुलाई के तीसरे महीने में न्यूयॉर्क पहुंचा. उसका नाम था बीआर अंबेडकर. अंबेडकर बाद में भारतीय जाति व्यवस्था के कटु आलोचक, एक प्रभावशील राजनेता और भारतीय संविधान निर्माता के रूप में पहचाने गए. लेकिन बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि अंबेडकर एक प्रशिक्षित अर्थशास्त्री भी थे. कोलंबिया विवि की वेबसाइट के मुताबिक वह एडविन सेलीगमन, जो लाला लाजपत राय के मित्र भी हुआ करते थे, के निर्देशन में पढ़ने कोलंबिया विवि आये थे. तब वह युवा विद्वान घंटों पुस्तकालय में बिताता. अपने तीन वर्ष के कोलंबिया प्रवास के दौरान अंबेडकर ने अर्थशास्त्र के 29, इतिहास के 11, समाजशास्त्र के छह, दर्शन के पांच, मानव विज्ञान के चार, राजनीति के तीन एवं प्रारंभिक फ्रेंच और जर्मन के एक पाठ्यक्रमों को पूरा किया.
संभवत: अंबेडकर प्रशिक्षित भारतीय अर्थशास्त्रियों की पहली पीढ़ी से थे. अर्थशास्त्र की विधिवत शिक्षा प्राप्त करनेवाले पहले भारतीय राजनेता भी थे, जिनके शोधपत्र जाने-माने अकादमिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे. वह 1916 में अमेरिका से वापस आये, तीन वर्षो तक मुंबई कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाया और फिर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से एडविड केनान के निर्देशन में पीएचडी करने लंदन चले गए. उन्हें 1923 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से और 1927 में कोलंबिया विवि से पीएचडी अवॉर्ड की गई. लंदन प्रवास के दौरान उन्होंने वकालत भी की.
अंबेडकर की अमेरिका यात्रा के सौ वर्ष के बाद यह ऐसा समय है जब भारतीय अर्थव्यवस्था दिलचस्प मोड़ पर है. दिलचस्प यह भी है कि अंबेडकर ने प्रारंभिक समय में एक वित्तीय अर्थशास्त्री के रूप में अपनी साख बनायी थी. लंदन में उनकी पीएचडी की थीसिस भी ‘रुपये की समस्या’ पर ही थी, जो 1923 में किताब की शक्ल में मंजर-ए-आम पर आई थी. वर्तमान में रुपये और डॉलर के मुकाबले को देखते हुए उनके कुछ विश्लेषण प्रासंगिक हैं. अंबेडकर ने रुपये की समस्या की पड़ताल उस समय की जब रुपये के मूल्य को लेकर उपनिवेशक प्रशासन और भारतीय कारोबारियों के बीच ठकराव की स्थिति थी. भारतीय कारोबारियों का तर्क था कि सरकार अधिमूल्यक विनिमय दर रख रही है ताकि ब्रिटिश निर्यातक, जो भारत में कारोबार कर रहे हैं को ज्यादा मुनाफा हो.
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रुपये का अवमूल्यन करने की भारतीय कारोबारियों की मांग को कांग्रेस का भी समर्थन मिला था. अंत में लंदन सरकार ने मामले की जांच के लिए 1925 में रॉयल कमीशन का गठन किया. खैर, अंबेडकर के पीएचडी थीसिस का केंद्र बिंदु यही था कि भारतीय वित्तीय मामलों का नियोजन कैसे किया जाए. अंबेडकर मयानर्ड केन्स के स्वर्ण विनिमय मानक को इस्तेमाल करने के विरोध में थे, केन्स का मानना था कि भारत को स्वर्ण विनिमय मानक को अपनाना चाहिए. हालांकि अंबेडकर इसके समर्थन में थे कि इसका स्वर्ण मानक हो. एक आर्थिक इतिहास के तौर पर 2001 में एक भाषण के दौरान एस अंबीराजन ने ‘भारत अर्थशास्त्र को अंबेडकर का योगदान’ के विषय पर बोलते हुए कहा था कि अंबेडकर की आर्थिक चिंता सिर्फ सैद्धांतिक नहीं थी वह जन नीतियों के निर्माण में इसके उलझाव को भी समझते थे.
रॉयल कमीशन को अपने वक्तव्य में अंबेडकर ने विवाद को जिस तरह से परिभाषित किया वह आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है. उन्होंने कहा था कि शुरुआत में ही यह समझ लेना जरूरी है कि विवाद में दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं.
1. क्या हमें अपने विनिमय को स्थिर करना चाहिए?
2. और हमें इसे किस अनुपात में स्थिर करना चाहिए?
वर्तमान संदर्भ अलग है लेकिन अंबेडकर ने जिस तरह से समस्या को पेश किया वह आज भी प्रासंगिक है. क्या केंद्रीय बैंक को रुपये को बचाने का प्रयास करना चाहिए और वह मूल्य क्या होगा? हालांकि, अंबेडकर कुछ हद तक रुपये के अवमूल्यन के पक्ष में थे, इतना कि दोनों पक्ष राजी हों. उपनिवेशक सरकार जो ब्रिटिश व्यापारियों के पक्ष में थी और चालू विनिमय दर को ही बनाए रखना चाहती थी. वहीं कांग्रेस जो भारतीय कारोबारियों के पक्ष में थी और मजबूत और सस्ते रुपए के पक्ष में थी. 19 वीं शताब्दी के अंत में सस्ते रुपये ने भारतीय निर्यातकों को काफी मदद पहुंचायी थी.
हालांकि बीच के रास्ते को लेकर अंबेडकर का तर्क बड़ा दिलचस्प था. वह इसके व्यावहारिक परिणामों को समझ रहे थे. अंबेडकर का कहना था कि थोड़े अवमूल्यन से कारोबारियों के साथ-साथ कामाऊ तबके को भी फायदा होगा. हालांकि, रुपये का अत्यधिक अवमूल्यन महंगाई (मुद्रास्फीति) में बढ़ोतरी का कारण हो सकता था. दरअसल अंबेडकर ने कहा कि रुपये के मूल्य को तय करते हुए दोनों तबकों के हितों का ख्याल रखा जाना चाहिए, क्योंकि रुपए के अत्यधिक कमजोर होने से मुद्रास्फीति बढ़ेगी जिससे कमाऊ तबके के वास्तविक मजदूरी में गिरावट आ सकती है.
भारतीय मुद्रा और वित्त पर बनी रॉयल समिति को दिए अपने बयान में अंबेडकर ने कहा कि यह मान भी लिया जाय कि कम विनिमय दर से आय में वृद्धि होती है, तो भी महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि किसकी आय में वृद्धि होती है. यह वृद्धि आम तौर से उन व्यवसायियों की आय में होती है जो निर्यात के धंधे से जुड़े है. जिसे एक अंधविश्वास के तौर पर देश की आय के रूप में देखा जाता है. अब अगर यह मान लिया गया है कि कम विनिमय दर का मतलब घरेलू बाजार में ऊंची कीमत का होना है, एक समय में यह स्पष्ट हो जायेगा कि यह आय, विदेशी से होनेवाली राष्ट्रीय आय नहीं है. बल्कि यह एक वर्ग की कीमत पर दूसरे वर्ग की आय है.
अंबेडकर निश्चित रूप से अपने समय के अर्थशास्त्री थे, वे मुद्रा के परिमाण सिद्धांत और स्वर्ण सिद्धांत को बखूबी समझते थे. यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि 1920 के बाद अंबेडकर ने अर्थशास्त्र को लगभग छोड़ दिया था, हालांकि 1918 में प्रकाशित अपने एक पर्चे में भारत में छोटी जोतों की समस्या के बारे में लिखा था यह काफी हद तक विकास अर्थशास्त्र की पूर्वपीठिका साबित हुई, जिसमें खेती के क्षेत्र में छिपी हुई बेरोजगारी का भी जिक्र था. उन्होंने बताया कि क्यों भारत को बेरोजगारी से निबटने के लिए औद्योगीकरण की जरूरत है. इस मामले में अंबेडकर के विचार उनके राजनीतिक विरोधी गांधी के विचारों के एकदम उलट थे. हालांकि अंबेडकर ने दुबारा आर्थिक शोध की तरफ पलट कर नहीं देखा. लेकिन बाद में अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम में बिताए अपने दिनों को करते हुए उन्हें खुशी हुई. उन्होंने लिखा कि यूरोप और अमेरिका में बिताये मेरे पांच वर्षो ने मेरे मन से इस बात को निकाल दिया कि मैं एक अछूत हूं और यह कि वह भारत में जहां कहीं भी जाएगा खुद के लिए और औरों के लिए के लिए मुश्किल का कारण बनेगा.