बहराइच :जिले के बौंडी इलाके के एक शख्स ने अप्लास्टिक एनीमिया से परेशान होकर खुद की जान ले ली. घटना एक दिन पुरानी है. मामले के बाद इस गंभीर बीमारी को लेकर पूरे शहर में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है. सभी इस बीमारी के कारण, लक्षण और इलाज खर्च के बारे में जानने को उत्सुक दिखाई दे रहे हैं. लोगों की इन्हीं जिज्ञासाओं का समाधान खोजने के लिए ईटीवी भारत की टीम ने विशेषज्ञ से बातचीत की.
अप्लास्टिक एनीमिया बीमारी से जुड़े सभी पहलुओं के बारे में जानने से पहले जिले में हुए घटना क्रम के बारे में जान लेते हैं. बौंडी थानाध्यक्ष गणनाथ प्रसाद ने बताया कि जैतापुर बाजार डीहा निवासी 42 साल के अरुण कुमार सिंह पिछले एक साल से अप्लास्टिक एनीमिया से ग्रसित थे. दो दिन पूर्व ही अरुण कुमार ने दो यूनिट ब्लड चढ़वाया था. इस गंभीर बीमारी के इलाज में लाखों रुपये खर्च हो चुके थे. बुधवार रात को बीमारी से हार मानकर अरुण कुमार ने खुद की जान ले ली. थानाध्यक्ष ने बताया कि मृतक के पिता सुरेंद्र कुमार सिंह की तहरीर पर पुलिस जांच कर रही है. शव को फिलहाल पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है.
आइए जानते हैं क्या है अप्लास्टिक एनीमिया : केजीएमयू के पलमोनरी एवं क्रिटिकल केयर मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. वेद प्रकाश ने बताया कि इस गंभीर बीमारी में शरीर में खून नहीं बनता है. इसके पीछे के दो कारण हैं. पहला बोनमेरो खून की कोशिकाएं बनाना बंद कर देता है, दूसरा खून की जो कोशिकाएं बनती हैं, एंटी बॉडी उन्हें नष्ट कर देता है. इससे खून बनना बंद हो जाता है. इसे मायेलोडिस्प्लास्टिक सिंड्रोम भी कहा जाता है. उन्होंने बताया कि इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को थकान अधिक महसूस होती है. अनियंत्रित रक्तस्राव होता है. अप्लास्टिक एनीमिया खून की कमी से जुड़ी बीमारी है. शरीर में रक्त कोशिकाओं का निर्माण कम हो जाता है. इस रोग के लक्षण एकाएक सामने नहीं आते हैं. अगर इस रोग को अधिक समय तक इग्नोर किया जाए तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं. व्यक्ति की मौत तक हो सकती है. मेडिकल कॉलेज में इसका इलाज होता है. जिला अस्पतालों में इसका इलाज नहीं हो पाता है, क्योंकि वहां पर विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं तैनात हैं. यह बीमारी ताउम्र मरीज के जीवन में रहती है. ऐसे में जब मरीज के शरीर में खून नहीं बनता है तो मरीज को डायलिसिस कराने की आवश्यकता होती है. वहीं इसके अलावा अगर मरीज निजी अस्पताल की तरफ रुख करता है तो वहां पर 10 से 15 लाख रुपए का खर्चा होता है. जबकि मेडिकल कॉलेज में इसका इलाज निशुल्क है. अस्पताल से इसके लिए मरीज को दवा भी मुहैया होती है.