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जंयती विशेष : शीला दीक्षित को भी मिली थी राजनीति में शिकस्त

15 सालों तक दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद संभालने का रिकॉर्ड बनाने वालीं दिवंगत शीला दीक्षित ने अपने कार्यकाल में कई सारे काम किए. इतना नहीं, उन्हें राजनीति के क्षेत्र में जितनी सफलता मिली, उतनी ही उन्हें शिकस्त भी मिली. उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे. आज उनकी जयंती पर आइए, उनके राजनीतिक करियर पर एक नजर डालें.

शीला दीक्षित का जीवन
शीला दीक्षित का जीवन

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Published : Mar 31, 2021, 6:25 PM IST

नई दिल्ली : दिल्ली की तस्वीर बदलने वाली पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की आज 83वीं जयंती है. लंबे समय तक दिल्ली की मुख्यमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड बनाने वालीं शीला दीक्षित ने अपने कार्यकाल में कई सारे कार्य किए. दिल्ली में मेट्रो के नेटवर्क की शरुआत हो या फिर बारापूला जैसे बड़े रोड नेटवर्क, सब उन्हीं की देन मानी जाती है.

शीला दीक्षित जितनी जिंदादिल और प्रभावशाली थीं, वह उतनी ही विनम्र और मुस्कराती रहने वाली महिला थीं. उन्हें जनता का मुख्यमंत्री या दादी मां भी कहा जाता था. 31 मार्च, 1938 को पंजाब के कपूरथला में कपूर परिवार में जन्मीं शीला दीक्षित ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से इतिहास में एमए किया था. 1962 में उनकी शादी एक राजनीतिक परिवार में हुई थी. उनके पति विनोद दीक्षित आईएएस ऑफिसर थे.

ससुर से सीखे थे राजनीति के दांवपेच
शीला दीक्षित के ससुर उमाशंकर दीक्षित उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेताओं में से एक थे. इतना ही नहीं, वह आजादी की लड़ाई में भाग ले चुके थे और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी थे. उन्हीं की छत्रछाया में शीला का राजनीतिक सफर शुरू हुआ और परवान भी चढ़ा. दीक्षित परिवार की गांधी परिवार से करीबियां नेहरू के वक्त से थीं.

शीला अपने काम की बदौलत इंदिरा गांधी की नजर में आईं और आगे चलकर संयुक्त राष्ट्र कमीशन दल की सदस्य बनाई गईं. शीला दीक्षित 1984 से 1989 तक कन्नौज लोकसभा सीट से सांसद रही थीं और 1986 से 1989 तक केंद्रीय मंत्रिमंडल का भी हिस्सा रहीं.

राष्ट्रीय राजधानी को बनाया था कर्मभूमि
शीला दीक्षित के जीवन में बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम तब हुआ, जब 1998 के संसदीय चुनाव में पूर्वी दिल्ली क्षेत्र से भाजपा के लालबिहारी तिवारी के हाथों उन्हें शिकस्त मिली. इसके बाद कांग्रेस ने उन्हें राज्य की राजनीति का चेहरा बनाया और गोल मार्केट सीट से उन्होंने विधानसभा चुनाव जीता और 1998 में ही दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं.

शीला दिक्षित ने राजधानी में अपने 15 साल के शासन के दौरान दिल्ली की तस्वीर ही बदल कर रख दी थी. इसके बाद 2010 में आयोजित हुए कॉमनवेल्थ गेम्स ने इस दिशा में काफी मदद किया था, लेकिन बाद में दीक्षित पर भ्रष्टाचार के भी कई आरोप लगे थे. साल 2012 में दिल्ली का चर्चित निर्भया कांड हुआ, जिससे दीक्षित सरकार के खिलाफ एक लहर बनी थी.​

बीमारी में भी राजनीति से नहीं छूटा नाता
शीला दीक्षित आखिरी सांस तक राजनीति में सक्रिय रही थीं. बीमार हालत में भी उन्होंने राजनीति से अपना नाता नहीं तोड़ा. शीला को 2014 में केरल का राज्यपाल बनाया गया था, लेकिन 25 अगस्त, 2014 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने उत्तर-पूर्वी दिल्ली से लोकसभा चुनाव भी लड़ा, जिसमें उन्हें मनोज तिवारी के सामने हार का सामना करना पड़ा.

अपने निधन से कुछ दिन पहले तक वह राजनीति में सक्रिय थीं और उन्होंने दिल्ली में नए जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी.

जब खत्म हो गया राजनीतिक करियर
15 सालों (1998-2013) तक दिल्ली में राज करने वाली दीक्षित का करियर तब खत्म हो गया, जब केंद्र में कांग्रेस सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के घोटालों का सिलसिला शुरू हुआ. पहले तो दिल्ली के लोकायुक्त द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में जांच के केस ने दीक्षित के खिलाफ काफी सुर्खियां पाई थीं. लेकिन, लोकायुक्त ने उन्हें बरी कर दिया था.

2009 में हत्या के दोषी करार दिए गए मनु शर्मा को पैरोल दिए जाने के विवाद में दीक्षित घिरी थीं, जिसमें हाईकोर्ट ने भी उनकी भूमिका की आलोचना की थी. वह 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए भी सवालों के घेरे में आ गईं. हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले दिल्ली कांग्रेस के प्रमुख के तौर पर उन्होंने वापसी की और उत्तर पूर्वी दिल्ली से चुनाव लड़ीं. लेकिन, राज्य में भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी से हार गईं.

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना हजारे के आंदोलन के चलते वैकल्पिक राजनीति खड़ी हो रही थी. विधानसभा चुनाव में दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस हारी और अरविंद केजरीवाल की नई सरकार 28 दिसंबर, 2013 को बनी.

शीला दीक्षित विधानसभा चुनावों की तैयारी कर ही रहीं थी, लेकिन दिल की बीमारी से वह उबर नहीं सकीं और 20 जुलाई, 2019 में अनगिनत यादों के साथ दुनिया को अलविदा कह गईं.

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