रांची: मिशन 2024 की तैयारी में जुटे राजनीतिक दल गोलबंदी में तो लगे हैं लेकिन गोलबंद नहीं हो पा रहे हैं. 2024 की तैयारी के लिए इंडिया गठबंधन की चार बैठकें तो हो गई लेकिन इन चार बैठकों में 24 की सियासत साफ नहीं हो पाई. हालात यह है कि जो लोग इंडिया गठबंधन को बनाने की पहल किए थे, वही लोग चार बैठकों के बाद विरोध के सुर उठाने लगे हैं. बिहार से नीतीश कुमार ने पूरे देश की विपक्ष को एक मंच पर लाने की कवायद शुरू की थी, जब पूरा विपक्ष एक मंच पर आया तो नीतीश की नाराजगी दिखने लगी है. यह बात महज नीतीश की नाराजगी का नहीं है, इसका असर बिहार और झारखंड की राजनीति पर साफ़-साफ़ दिखने भी लगा है. गठबंधन अपने वजूद को मजबूत कर भी नहीं पाया कि विरोध वाला मजमून जमीन पर आधार बनाना शुरू कर दिया है.
राज्य की सियासत में दिल्ली की दखल नहीं होगी. गठबंधन के पहले स्वरूप को इसी रूप में खड़ा करने की बात कही गई थी. नीतीश कुमार ने कहा था कि इसे ध्यान में रखकर ही काम किया जाएगा. राज्यों के वैसे राजनीतिक दल जिनकी भूमिका क्षेत्रीय पार्टी की है वे इसी बात को लेकर गठबंधन में शामिल होने के लिए तैयार भी हुए थे. अब नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड और लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल के साथ झारखंड से हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा इन तीन राजनीतिक दलों की बात करें तो 19 दिसंबर को हुई बैठक के बाद जिस तरीके की राजनीति बिहार झारखंड में शुरू हुई है उसने अब गठबंधन के वजूद पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है.
चार बैठकों के बाद एक नई राजनीति 2024 की सियासत के लिए खड़ी हो गई है. क्योंकि इस सवाल का जवाब नीतीश कुमार के पास नहीं है, कि आगे गठबंधन का स्वरूप क्या होगा. क्योंकि गठबंधन को वजूद में लाने और उसे स्वरूप देने के काम की शुरुआत नीतीश कुमार ने ही की थी, अब चार बैठकों के बाद जब नीतीश कुमार से सवाल पूछा जा रहा है तो उनके पास अब उत्तर देने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. सवाल वही है क्या आखिर चार बैठकों के बाद पीएम का चेहरा कौन होगा उत्तर अभी तय नहीं हुआ है. गठबंधन का समन्वयक कौन होगा तो उत्तर यही है कि अभी तय नहीं हुआ है. सीटों का बंटवारा कैसे होगा तो उत्तर यही है कि अभी तय नहीं हुआ है. राज्यों में पर्टियों के बीच जो भी भेद है उसका समझौता कैसे होगा तो सवाल यही आया कि बैठकर के निपट लेंगे, लेकिन जो बैठक हुई उसमें जिस मामले को निपटाना था वह निपटा ही नहीं, तो 2024 के लिए नई सियासत में जगह बनाना शुरू कर दिया है.
झारखंड से पहले बात बिहार की करें तो बिहार में नीतीश की जदयू, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस की समझौता की सरकार चल रही है. इस गठबंधन में सीटों के अनुसार सब कुछ तय है. ऐसे में अगर सीटों का बंटवारा चुनाव के समय विवादों का रूप लेता है, तो लालू के राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार की जदयू के बीच लड़ाई का एक स्वरूप कांग्रेस खड़ा कर देगी. ऐसे में ना तो लालू यह चाहेंगे कि बिहार में सीटों के बंटवारे का कोई विवाद कांग्रेस खड़ा करे और नीतीश कुमार तो बिल्कुल नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस से सीटों के बंटवारे पर कोई मतभेद हो. वजह यह है कि समझौते का जो विभेद 19 दिसंबर को दिल्ली में खड़ा हुआ उसमें नीतीश कुमार की सारी मेहनत अपनी दिशा नहीं पा सकी. ऐसी स्थिति में यह बात साफ है कि बिहार में समझौते का स्वरूप मौजूदा गठबंधन की सरकार में भी बहुत साफ-साफ दिख नहीं रहा है, ऐसे में राज्यों में पार्टी के विभेद का सवाल और सीटों के बंटवारे का सवाल यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा है.
केंद्रीय राजनीति के लिए जो बात हो रही है उसमें लालू यादव की हिस्सेदारी बहुत बड़ी होगी, इस पर लालू यादव को भी बहुत ज्यादा कुछ नहीं कहना है. नीतीश कुमार भूमिका होती लेकिन बाकी राजनीतिक दल नीतीश के नाम को लेकर कुछ कह नहीं रहे हैं. सभी विपक्षी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाकर राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश की बड़ी भूमिका होगी यह सहयोगी दल नहीं मान रहे हैं. ऐसे में नीतीश कुमार और लालू के पास उनका बिहार ही बच रहा है. नीतीश और लालू यादव की नई राजनीति बिहार को बचाने तक रह गई है, और उम्मीद भी यही है कि उसी को बचाने की हर कोशिश और सियासत नीतीश को समझनी है और लालू यादव को करनी है. क्योंकि नीतीश कुमार के दिल्ली जाने के बाद की बिहार वाली राजनीति में लालू की पार्टी की पकड़ और तेजस्वी का मान दोनों बड़ा होना था.
लालू और नीतीश के महागठबंधन की नाराजगी के सवाल पर राजनीतिक जवाब चाहे जो आए लेकिन बिहार की सियासत का असर झारखंड की राजनीति पर सीधा डालेगा. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी इसको लेकर पहले से ही झगड़े वाली राजनीति कायम है. कांग्रेस ने आज से कई महीने पहले ही ऐलान कर दिया था कि 9 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. कांग्रेस के तमाम बड़े नेता सार्वजनिक मंच से इस बात को कह चुके हैं.
चार सीटों पर अपनी दावेदारी लालू यादव की पार्टी ने ठोक दी है, तो ऐसी स्थिति में झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास सिर्फ एक सीट बच रही है. झारखंड में सीटों का बंटवारा हुआ है उसे सहन करने वाली हिम्मत तो हेमंत में नहीं ही होगी. अब सवाल यह है कि जो हिम्मत हेमंत की है वह किस हैसियत के साथ सीटों का बंटवारा करेगी. अगर कांग्रेस 9 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए अड़ी रहती है तो उसे निपटाने के लिए हेमंत के पास उत्तर क्या है. जवाबी समझौते पर सवाल बस यही है अभी इस पर समझौता नहीं हुआ है और मिल बैठकर इससे निपट लेंगे. लेकिन 24 की तैयारी के लिए समय इतना कम बचा है कि वैसे राजनीतिक दलों के लिए जिनका राजनीतिक वजूद उसके राज्य तक ही निर्भर है और इंतजार करने की स्थिति में नहीं है. ऐसे में झारखंड में भी बैठक के बाद वाली राजनीति ने जगह पकड़ना शुरू कर दिया है.