हैदराबाद : क्या व्हील चेयर पर बैठकर प्रचार करना ममता बनर्जी के लिए वरदान साबित हुआ या फिर अल्पसंख्यकों के मन में यह भय कि यदि भाजपा आई तो उनके अस्तित्व पर संकट खड़ा हो जाएगा, क्या इस सोच ने उनकी जीत ऐतिहासिक बना दी. आपको इसका जवाब 'हां' में ही मिलेगा, क्योंकि तृणमूल को छोड़कर सभी प्रमुख धर्मनिरपेक्ष दलों का सूपड़ा साफ हो गया.
अल्पसंख्यकों को यह यकीन हो गया था कि भाजपा का 'रथ' सिर्फ ममता बनर्जी ही रोक सकती हैं. इसके अलावा भी कई कारण हैं, जिनकी वजह से भाजपा को नुकसान हुआ. जिस जंगलमहल के दक्षिणी इलाके में 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जीत का परचम लहराया था, वहां से इस बार उनकी विदाई हो गई. यहां पर महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले अधिक संख्या में मत किया. यहां तक कि मतुआ समुदाय का 'अंतरराष्ट्रीयकरण' भी भाजपा के काम नहीं आया.
यह भाजपा के खिलाफ ममता की जीत है. यही वजह है कि ममता ने 2016 विधानसभा चुनाव से भी बेहतर परिणाम दिए हैं. हां, यह सच है कि भाजपा को अतिरिक्त वोट मिले. करीब 38 फीसदी. ऐसा लगता है कि लेफ्ट और कांग्रेस का मत भाजपा के पक्ष में गया. प. बंगाल के कई इलाकों से कांग्रेस और लेफ्ट पूरी तरह से साफ हो गए.
भाजपा को कोलकाता से बहुत उम्मीद थी. तृणमूल छोड़कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने वाले भी कुछ नहीं कर सके. भाजपा ने इन नेताओं से चमत्कार की उम्मीद की थी. इनमें अधिकांश नेता चुनाव हार गए. राजीव बनर्जी और बैशाली डालमिया भी ऐसे ही नेताओं में शामिल हैं. हां, पूर्वी मिदनापुर की नंदीग्राम सीट से शुभेंदु अधिकारी ने तृणमूल को थोड़ा झटका जरूर दिया. उन्होंने टीएमसी सुप्रीमो को ही चुनाव में हरा दिया.
भाजपा के लिए केरल में भी अलग स्थिति नहीं रही. यहां पर भाजपा के एक भी उम्मीदवार जीत नहीं सके. उत्तर और मध्य इलाकों के अल्पसंख्यकों ने पाला बदलकर लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट का साथ दिया. उन्हें भी भगवा का भय दिख रहा था. उत्तर केरल के अल्पसंख्यकों ने प्रमुखता से लेफ्ट गठबंधन के लिए मत दिया. इसी तरह से मध्य केरल के इसाई समुदाय ने लेफ्ट के पक्ष में मतदान किया. केरल के दक्षिणी इलाके, जहां हिंदुओं की आबादी ज्यादा है, यहां पर भी भाजपा का परफॉर्मेंस अच्छा नहीं रहा. वह जनता के सामने सार्थक और विश्वास लगने वाला विकल्प नहीं रख सकी.
तमिलनाडु में डीएमके के सत्ता में आने की वजह भी कुछ ऐसी ही रही. वशंवाद की राजनीति पर प्रहार काम नहीं आया. उलटे डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन की जीत के साथ-साथ उनके बेटे उदयनिधि की भी जीत हो गई. उनकी तीसरी पीढ़ी विधानसभा पहुंच गई. उदयनिधि चेपक विधानसभा सीट से जीते. जब तक जयललिता थीं, एआईएडीएमके को अधिकांश महिला मतदाता समर्थन किया करती थीं, लेकिन इस बार लगता है कि वह वोट डीएमके की ओर शिफ्ट हो गया है.
10 सालों बाद डीएमके सत्ता में लौटी है. इसने न सिर्फ एंटी इनकंबेंसी फैक्टर का फायदा उठाया, बल्कि अपनी राजनीतिक विरासत का भी बड़े ही शांत अंदाज में समाधान कर लिया. 45 सालों तक लगातार राजनीतिक 'प्रिंस' रहने के बाद आज स्टालिन को 'राजा' बनने का मौका मिला. उन्हें ऐसे समय में सत्ता संभालना पड़ रहा है, जब पूरा देश कोरोना की चपेट में आ चुका है. स्वास्थ्य व्यवस्था बड़ी चुनौती बनकर उभरा है. डीएमके के प्रवक्ता मनुसुंद्रम ने एक दिन पहले रविवार को कहा कि उन्हें उनकी प्राथमिकता पता है. उनके सामने स्वास्थ्य व्यवस्था को संभालने की बड़ी चुनौती है.
केरल और पश्चिम बंगाल के विपरीत असम में भाजपा के लिए राहत भरी खबर रही. यहां पर अल्पसंख्यकों को मत भाजपा को उतना अधिक प्रभावित नहीं कर सका. उलटे कांग्रेस ने जिस तरीके से यहां के मूल निवासियों को लेकर पहचान की राजनीति का मुद्दा उठाया, विकास के साथ-साथ यह मुद्दा भी भाजपा के पक्ष में काम कर गया. सीएए और एनआरसी का मुद्दा कांग्रेस गठबंधन के काम नहीं आया. बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट से गठजोड़ भी कांग्रेस को सत्ता में नहीं बिठा सका. कांग्रेस, लेफ्ट, एआईयूडीएफ फैक्टर पर भाजपा भारी पड़ी. भाजपा के हिमंत बिस्वा सरमा ऐसे नेता बने, जिनमें लोगों को मना लेने की अद्भुत क्षमता है. भाजपा असम समझौते के क्लॉज छह को लागू करने का भरोसा दे चुकी है. इसके तहत असम के मूल निवासियों को संरक्षण प्राप्त है. बदरुद्दीन अजमल को सांप्रदायिक ताकत के तौर पर प्रचारित करना और असम के मूल निवासियों के अस्तित्व पर संकट के मुद्दों ने कांग्रेस को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया. असम कांग्रेस के अध्यक्ष रिपुन बोरा खुद चुनाव हार गए. यह बताता है कि असम की जनता ने कांग्रेस महाजोत को किस रूप में देख रहे थे.
ये भी पढ़ें :प.बंगाल में ममता की जीत की बड़ी वजह
भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती हिमंत बिस्वा सरमा और सर्बानंद सोनोवाल के बीच तालमेल बिठाना है. हिमंत लंबे समय से मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं. क्या भाजपा असम में एआईएडीएमके के फॉर्मूले पर जाना चाहेगी या फिर कोई समाधान निकालेगी. यह तो देखने वाली बात होगी. तमिलनाडु में एआईएडीएमके तीन गुटों में बंट चुकी थी. ईपीएस, ओपीएस और शशिकला के बीच.
इस चुनाव की सबसे विचित्र बात ममता की हार रही. यह देखना होगा कि हारने के बावजूद ममता किस तरह सीएम पद संभालती हैं और कहां से वह छह महीने के अंदर विधायक बनना पसंद करेंगी. अनुमान लगाया जा रहा है कि वह कोलकाता खार्दा से चुनाव लड़ सकती हैं. क्योंकि इस सीट पर चुनाव नहीं हुआ है. कोरोना की वजह से उम्मीदवार के निधन के बाद चुनाव स्थगित कर दिया गया था.