रायपुर/बस्तर:करीब चार हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले अबूझमाड़ में पर्यावास के अधिकार की मांग जोर पकड़ते जा रही है. यहां निवास करने वाले अति पिछड़ी अबूझमाड़िया जनजाति 2006 में बने वन अधिकार कानून के तहत अबूझमाड़ का हैबिटेट राइट मांग रही है. वहीं नक्सली अब इसके विरोध करते नजर आ रहे हैं.
नक्सल समस्या और आदिवासियों की जीवन शैली और उनके मुद्दे को करीब से समझने वाले लोग भी हैरान हैं. कि आखिर जिस जमीन के लिए पिछले कई सालों से बस्तर के दुर्गम इलाकों में रहने वाले ये लोग नक्सलियों का साथ देते नजर आते थे. इन भोलभाले आदिवासियों को नक्सली अपने साथ इस जमीन का मालिकाना हक दिलाने के नाम पर जोड़ते थे वहीं अब इस पर्यावास के अधिकार के लिए अबूझमड़िया समाज द्वारा किए जा रहे आवेदन का विरोध करते नजर आ रहे हैं. और अबूझमड़िया समाज के प्रमुख को पूंजीपतियों का दलाल बताते हुए उसके खिलाफ मृत्युदंड का फरमान भी जारी कर दिया है.
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कुछ लोगों का कहना है कि नक्सलियों को हैबिटेट राइट या पर्यावास के अधिकार के बारे में जानकारी नहीं है. वे जिस आशंका की बात कर रहे हैं, वैसा वनाधिकार के व्यक्तिगत अधिकार में होता है. जहां एक परिवार को 10 एकड़ तक जमीन के अधिकार दिए जाने का प्रावधान है. लेकिन सच्चाई यह है कि परिवारों को बहुत कम जमीन का अधिकार दिया गया है. वहीं दूसरे लोगों का मत है कि नक्सली नेताओं का हैबिटेट राइट या पर्यावास के अधिकार का विरोध करना उनके मूल सिद्धांत से भटकना है.
क्या है पर्यावास अधिकार-
तीन तरह के वनाधिकार होते हैं. पहला तो व्यक्तिगत वन अधिकार जो एक परिवार को मिलता है. दूसरा सामूहिक वन अधिकार जो एक गांव को मिलता है और तीसरा है पर्यावास या हैबिटैट का अधिकार. ये पूरे समुदाय को मिलता है, अब अबूझमाड़िया इसी के तहत समूचे अबूझमाड़ के अधिकार की बात कर रहे हैं. देश के कई राज्यों में इस तरह के अधिकार के लिए कई आवेदन पेंडिंग हैं. लेकिन अब तक इस कानून के तहत किसी समाज को ये अधिकार नहीं मिल पाया है. भारत में अलग-अलग राज्यों में 705 जनजाति निवास करती है. इनमें से सिर्फ 75 अति पिछड़ी जनजाति को ही पर्यावास का अधिकार दिया जा सकता है. बात छत्तीसगढ़ की करें तो यहां 5 अति पिछड़ी जनजाति पंडो. पहाड़ी कोरवा, बैगा, कमार और अबूझमाड़िया को ही ये अधिकार प्राप्त है.
4 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला है भू-भाग