रायपुर :छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी लंबे समय से नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत का रास्ता तलाश रहे हैं. शुभ्रांशु चौधरी देश- विदेश की कई बड़ी मीडिया संस्थानों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. वर्तमान में वे बस्तर क्षेत्र में बतौर सामाजिक कार्यकर्ता काफी सक्रिय हैं. ईटीवी भारत ने शुभ्रांशु चौधरी से नक्सलियों और बस्तर के आदिवासियों से जुड़े विभिन्न विषयों को लेकर खास बातचीत की.
सवाल :कश्मीर फाइल्स फिल्म रिलीज होने के बाद प्रदेश के वरिष्ठ बीजेपी नेता नंद कुमार साय ने बयान दिया है कि बस्तर (Discussion on The Bastar Files) क्षेत्र से विस्थापित आदिवासियों की स्थिति कश्मीरी पंडितों से भी ज्यादा खराब है. इस पर आपकी क्या राय है?
जवाब :यह सही बात है. अभी कश्मीर और यूक्रेन में विस्थापितों की बात हो रही है. सभी सरकारें मदद भी कर रही हैं. आज से 17 साल पहले बस्तर से करीब 55 हजार लोग विस्थापित हुए थे. आज भी उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. छत्तीसगढ़ कहता है कि यहां से कोई गया नहीं और विस्थापित परिवार जिन प्रदेशों में गए हैं, वे उन्हें अपने यहां रखना नहीं चाह रहे हैं. इसके लिए सबको मिलकर प्रयास करना चाहिए. रही बात नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत में मध्यस्थता की तो हम शांति स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.
बस्तर के विस्थापितों के पुनर्वास का काम किया जाना चाहिए. हमारे पास उदाहरण है नार्थ ईस्ट का. मिजोरम से विस्थापित होकर त्रिपुरा गए लोगों के लिए पुनर्वास योजना बनाई गई. हमें भी कोशिश करनी चाहिए कि बस्तर के विस्थापितों का भी पुनर्वास हो सके. 50 सालों से जो गाड़ी गलत दिशा में चल रही है, वह रिवर्स गियर में वापस हो. हिंसा खत्म कर बस्तर अब शांति की ओर लौटे.
सवाल :आप नक्सलियों और सरकार के बीच बातचीत के लिए प्रयास कर रहे हैं. क्या दोनों पक्ष बातचीत के लिए गंभीर हैं ?
जवाब :गंभीर तो दोनों पक्ष नहीं हैं, लेकिन हमें कोशिश करनी चाहिए. नक्सलियों की स्थिति आज बेहद कमजोर है. इससे पहले भी बातचीत की कोशिश हुई थी 2004 में. उस समय नक्सली पक्ष मजबूत था. आज नक्सलियों की स्थिति बेहद कमजोर है. नक्सली आंदोलन शुरुआत में किसानों का आंदोलन था. 80 के दशक में ये लोग बस्तर आये. इनका साथ देने वाली बस्तर की 99 प्रतिशत आदिवासी जनता ने अब तय कर लिया है कि उन्हें इससे बाहर निकलना है. हमारे राज्य में सरेंडर पॉलिसी काफी पहले से है, लेकिन कुछ अर्से पहले ही स्थानीय नक्सलियों ने सरेंडर करना शुरू किया है. हालांकि करीब 5 लाख लोग अब भी उनके डायरेक्ट कंट्रोल में हैं.
ज्यादातर नक्सली नेता अब बूढ़े हो गए हैं. ये 40 साल में इक्के-दुक्के ही आदिवासी नेता तैयार कर पाए हैं. सेंट्रल कमेटी में एक भी आदिवासी नेता वर्तमान में नहीं है. जबकि इनके लिए लड़ने वाले ज्यादातर लोग आदिवासी हैं. नक्सलियों के पास पैसा है. लोग हैं. जंगल और हथियार भी हैं. जो नहीं है, वह है ब्रेन यानी बुद्धि. नक्सलियों का आंदोलन गैंगवार में बदलने वाला है. इसलिए नक्सलियों को भी गंभीरता से सोचना चाहिए कि आज समय है कि वे बातचीत से आदिवासियों के लिए कुछ हासिल कर सकते हैं. सरकार से भी अनुरोध होगा कि अगर किसी समस्या का समाधान करना है तो अगले पक्ष को नष्ट करके नहीं बल्कि उन्हें सम्मानजनक विदाई देनी चाहिए.