रायपुर: आज चाहे महिला हो या पुरुष हर क्षेत्र में वे बराबरी के मुकाम पर हैं. कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं. एक साथ देश की तरक्की में योगदान दे रहे हैं. नए कीर्तमान रच रहे हैं. कुछ ऐसी ही कहानी है इस महिला मूर्तिकार की. जिसने कभी नहीं सोचा था कि वो सरकारी नौकरी छोड़कर एक मूर्तिकार बन जाएगी.
राजधानी के माना कैम्प की सड़कों से चलते हुए कोई भी आसानी से उन महिला मूर्तिकारों का पता लगा सकता है, जिन्होंने पुरुषों के प्रभुत्व वाली दुनिया में अपने लिए एक अलग जगह बनाई है. यहां कुछ पारंपरिक मूर्तिकला केंद्र और महिलाएं हैं और उसी में शामिल प्रसिद्ध महिला मूर्ति निर्माता अरुणा सरकार जो अपनी करीब एक दर्जन पुरुष टीम के साथ काम करती हैं.
आसान नहीं था मूर्तिकार बनने का सफर
पुरूष प्रधान समाज में एक महिला मूर्तिकार का सफर असान नहीं होता. स्वाभाविक रूप से अरुणा के लिए भी आसान नहीं था. वह कहती हैं कि, 'शादी के बाद रेलवे की नौकरी छोड़कर जब घर गृहस्थी संभालने लगी थी तब सपने में भी नहीं सोचा था कि भविष्य का नाता मिट्टी से ही जुड़ने चला है. मेरे शादीशुदा जीवन की उम्र लंबी नहीं रही, लिहाजा मैं समझ चुकी थी कि मासूम बेटे के साथ दुनिया में अकेले ही संघर्ष करना होगा. इस बात को करीब 20 वर्ष गुजर चुके हैं. आज अगर सोचती हूं, तो सब सपना ही लगता है.'
'सम्मानजनक नहीं माना जाता था'
- करीब 13 सहायकों के साथ माना में अपना स्टूडियो चलाने वाली अरुणा ने ETV भारत से कहा, 'जब मूर्ति गढ़ने के काम में आई, बमुश्किल ही एक-दो लड़कियां इस लाइन में थीं. दरअसल इस काम को कोई सम्मानजनक नहीं मानता.
- इस काम को सम्मानजनक वे इस लिहाज से नहीं मानते थे, क्योंकि मिट्टी का काम है. शुरुआती दौर में जब ग्राहक आते थे, उनके साथ महिलाएं भी आती थी, तब उनका रवैया हमारे प्रति सम्मानजनक नहीं होता था, लेकिन मैं उनकी परवाह नहीं करती थी, हालांकि आज ऐसा नहीं है.'
- अरुणा कहती हैं कि, 'मिट्टी से सने हाथ, रंगों से सराबोर साड़ी लिए जब कूची पकड़कर मां की आंखें बनाने में तल्लीन हो जाती हैं, तब सभी के असम्मानजनक व्यवहार मन से गायब हो जाते हैं.'