रायपुर: छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में तीन दिवसीय राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव का आयोजन किया गया है. जो 19 अप्रैल से 21 अप्रैल तक चलेगा. इसमें छत्तीसगढ़ के ही नहीं, बल्कि देश के अन्य राज्यों से भी लोग पहुंच रहे हैं. लेकिन इस दौरान यहां पर बस्तर के व्यंजन और आभूषण लोगों के लिए खासा आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं. बस्तर के व्यंजन और आभूषण की पूछ परख ज्यादा है.
बस्तर के व्यंजन और आभूषण का क्रेज यहां के जनजातियों के खान-पान, आभूषणों सहित उनके रहन-सहन के तरीकों को जानने के लिए लोग आकर्षित हो रहे हैं. यहां लोगों में जनजातियों की संस्कृति के प्रति उत्सुकता के साथ-साथ बस्तर की खास चापड़ा चटनी, महुआ लड्डू और पेज का स्वाद लेने की भी ललक दिखाई दे रही है. इसके साथ ही नई पीढ़ी भी सदियों पुरानी परम्परा और संस्कृति को जानने और उससे जुड़ने के लिए उत्साहित दिख रही है.बस्तर से आए आदिवासी अपने स्टॉल पर रायपुर के लोगों को जंगल के खान-पान के स्वाद से परिचय करा रहे हैं. यहां पुरानी के साथ नई पीढ़ी भी बस्तरिया डोडा (भोजन) के प्रति आकर्षित दिखाई दे रहे हैं. यहां लांदा, माड़िया पेज, तीखुर का शर्बत, चापड़ा चटनी, महुआ लड्डू का लोगों ने खूब स्वाद लिया और तारीफ की.
चापड़ा चटनी बनी लोगों की पसंद:शांता नाग बताती हैं कि किस तरह से चापड़ा की चटनी बनाई जाती है. उन्होंने बताया कि आम, महुआ और सरगी के पेड़ों में लाल चींटियां अधिक मात्रा में रहती है. ऐसे पेड़ों में ये चींटियां अपने कुटुम्ब समेत घोंसला बनाकर रहती है. स्थानीय तौर पर इन्हे चापड़ा कहते हैं. ग्रामीण इलाकों में चापड़ा चटनी को बहुत अधिक मात्रा में पसंद किया जाता है. चींटियों को उनके अंडे समेत नमक मिर्च के साथ पीसकर चटनी बनाई जाती है.
यहां के ग्रामीणों का मानना है कि, यह चापड़ा चटनी सेहत के लिये बहुत लाभदायक होती है. बता दें कि चींटियों के डंक मात्र से आदमी का बुखार ठीक हो जाता है. यहां पहुंचे लोगों का कहना है कि, उन्होंने इस तरह के व्यंजन का स्वाद पहले कभी नहीं चखा है. यहां पर वे पहली बार इन व्यंजनों का स्वाद चख रहे हैं. खासकर चापड़ा चटनी का स्वाद उन्हें कुछ अलग ही भा रहा है. इसके अलावा महुआ के लड्डू सहित अन्य व्यंजन लोगों को खासा पसंद आ रहा है.
बस्तर का आभूषण भी बना आकर्षण का केंद्र: बस्तर के आभूषण की बात करें तोइसमें जंगली फूल, पंख, कौड़ियां, सिंगी, ककई-कंघी, मांगमोती, पटिया, बेंदी प्रमुख हैं. चेहरे पर टिकुली के साथ कान में ढार, तरकी, खिनवां, अयरिंग, बारी, फूलसंकरी, लुरकी, लवंग फूल, खूंटी, तितरी धारण की जाती है. नाक में फुल्ली, नथ, नथनी, लवंग, बुलाक धारण करने का प्रचलन है. सूंता, पुतरी, कलदार, सुर्रा, संकरी, तिलरी, हमेल, हंसली जैसे आभूषण गले में शोभित होते हैं. बाजू, कलाई और उंगलियों में चूरी, बहुंटा, कड़ा, हरैया, बनुरिया, ककनी, नांमोरी, पटा, पहुंची, ऐंठी, मुंदरी (छपाही, देवराही, भंवराही) पहना जाता है. कमर में भारी और चौड़े कमरबंद-करधन पहनने की परंपरा है और पैरों में तोड़ा, सांटी, कटहर, चुरवा, चुटकी, बिछिया (कोतरी) पहना जाता है. बघनखा, ठुमड़ा, मठुला, मुंगुवा, ताबीज आदि बच्चों के आभूषण हैं. तो पुरुषों में चुरुवा, कान की बारी, गले में कंठी पहनने का चलन है.
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बस्तर के आभूषण चांदी को दे रहें मात: जनजातीय आभूषणों के विक्रेता ढाल सिंह देवांगन ने बताया कि बटकी, खिनवा, सूता जैसे प्राचीन आभूषण नई पीढ़ी ने पहनना बंद कर दिये थे. प्रदर्शनी के माध्यम से उन्हें इन गहनों के फैशन ट्रेंड के बारे में बताने के साथ हल्के वजन के गहने उपलब्ध कराए जा रहे हैं. उन्हें बताया जा रहा है कि पुराने गहने मॉडर्न फैशन में भी ट्रेंडिंग है. इससे नई पीढ़ी का रूझान भी अपनी प्राचीन कला के प्रति बढ़ा है. वह अपनी संस्कृति और कला से जुड़ने लगे हैं. स्टॉल में घोटुल में बनाए गए कलगी, झलिंग, फरसा, तुमड़ी, फंदरा, पनिया (बांस की कंघी) का भी प्रदर्शन किया गया है. इस दौरान ढाल सिंह ने इन आभूषणों के बारे में विस्तृत जानकारी दी उन्होंने बताया है यह अधिकतर आभूषण जिलेट के बनाए जाते हैं जो चांदी जैसे चमकते हैं लेकिन चांदी नहीं होते हैं. वहीं राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव में भ्रमण करने पहुंच रहे लोगों के लिए भी यह आभूषण आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं.