रायपुर: छत्तीसगढ़ Chhattisgarh की संस्कृति में नारी के शृंगार का प्रचलन प्राचीन काल से चला आ रहा है. यहां की प्राचीन मूर्तिशिल्प में नायक नायिका का शृंगार आमतौर पर देखने को मिलता है. Traditional jewelery पारंपरिक आभूषण पुराने जमाने ही नहीं, नई पीढ़ी को भी लुभा रहे हैं. attracting the youth युवाओं को आकर्षित कर रहे इन पारंपरिक आभूषण और पहनावों के बिना शादी ब्याह जैसे आयोजन फीके पड़ जाते हैं.
गोदना से शुरू हुई थी शृंगार की परंपरा:इतिहासकार और पुरातत्वविद हेमू यदु (Historian and archaeologist Hemu Yadu) ने बताया कि "देवी के शृंगार की तरह ही नारी अपना श्रृंगार करती हैं. नारियों में शृंगार की प्रथा छत्तीसगढ़ में गोदना (टैटू) से शुरू हुई थी. वही उस जमाने में नारियों का शृंगार हुआ करता था. लेकिन बाद में मोरपंख, कौड़ी, पत्थर, मूंगा जैसी चीजों से नारियां शृंगार करने लगीं. वर्तमान में शृंगार की पहचान बदल गई और यह आभूषण में तब्दील हो गई. वर्तमान में सोना, चांदी, गिलेट और तांबा जैसी चीजें आभूषण के रूप में प्रचलित हुईं, जो सिर के आभूषण से लेकर पैर के आभूषण तक बनने लगे."
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पारंपरिक आभूषण और पोशाक ही छत्तीसगढ़ की पहचान:हेमू यदु बताते हैं कि "कलचुरी काल, शरभपूरी काल, सोमवंशी काल की मूर्ति कला में भी नारी शृंगार देखने को मिलता है. नारियों का यह श्रृंगार धीरे-धीरे विलुप्त होने की कगार पर है. छत्तीसगढ़ में पारंपरिक रूप से आभूषण और पोशाक ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलते हैं. पारंपरिक आभूषण और पोशाक ही छत्तीसगढ़ी संस्कृति की पहचान हैं."
सिर के जेवर:ककई फूल और पंख का श्रृंगार, कौड़ियों के शृंगार, शृंगार का ककई (लकड़ी का कंघी), मूड खोचनी शृंगार, टिकली और सिंदूर.
कान के जेवर:खिनवा, झुमका, धार तितरी, ढरकी लुरकी, फूलसकरी, अयरिंग लवंगफूल, कान के खूंटी, कान के कुंडल, करणफूल कान की बाली.