रायपुर: कद्दावर आदिवासी नेता नंदकुमार साय ने चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी छोड़कर कांग्रेस पार्टी में प्रवेश कर लिया. चुनाव के पहले उनका पार्टी छोड़कर जाना भाजपा के लिए बड़ी चिंता की बात है. कांग्रेस में शामिल होने के बाद नंदकुमार साय ने भाजपा पर उपेक्षा का आरोप लगाया है. भाजपा पर आदिवासी नेताओं की उपेक्षा का आरोप पहले भी लग चुका हैं. पार्टी में कई ऐसे आदिवासी नेतृत्व हुए, जिन्हें पार्टी की कमान सौंपी गई लेकिन एक एककर उन्हें पार्टी से दरकिनार कर दिया गया, या फिर किसी ने मजबूरी में पार्टी छोड़ दी. जानकारों ने इस पर मिलीजुली राय दी है. पहले ये जानलेते हैं कि वो कौन कौन से बड़े आदिवासी नेता रहे जिन्हें भी भाजपा में उपेक्षा का सामना करना पड़ा.
अजीत जोगी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे साय:साल 2003 में विधानसभा चुनाव के दौरान संगठन ने नंदकुमार साय को अजीत जोगी के खिलाफ मरवाही से चुनाव मैदान में उतारा. संगठन को साय ने पहले ही बता दिया था कि वे अजीत जोगी के खिलाफ चुनाव नहीं जीत पाएंगे इसलिए उन्होंने मरवाही के साथ तपकारा विधानसभा से टिकट मांगी. लेकिन पार्टी ने उन्हें तपकरा से टिकट नहीं दिया और मरवाही में नंदकुमार साय की हार हुई. बाद में उन्हें लोकसभा और राज्यसभा का रुख करना पड़ा. दिल्ली की राजनीति में भेजकर उन्हें छत्तीसगढ़ की राजनीति से दर किनार कर दिया गया.
रामविचार नेताम ने आदिवासी विधायकों को दी थी डिनर पार्टी:छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद शुरुआती दिनों में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में सीएम के चेहरे के रूप में आदिवासी नेताओं को ही देखा जाता था. यही कारण था कि अजीत जोगी कांग्रेस से छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बने. साल 2003 विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत मिलने के बाद राम विचार नेताम को कैबिनेट में जगह दी गई. उन्होंने उस समय आदिवासी विधायकों के साथ डिनर पार्टी की थी. इस पार्टी के बाद केंद्रीय नेतृत्व ने रामविचार नेताम पर नाराजगी भी जाहिर की थी. केंद्रीय नेतृत्व को ऐसा लग रहा था कि रामविचार नेताम आदिवासी विधायकों को एक करने में जुटे हैं. बाद में केंद्रीय नेतृत्व ने रामविचार नेताम को केंद्र की राजनीति में व्यस्त कर दिया और रामविचार छत्तीसगढ़ की राजनीति से बाहर हो गए.
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कद्दावर आदिवासी नेता गणेशराम भगत:गणेशराम भगत आदिवासी नेता के रूप में एक बड़ा नाम हुआ करते थे. तत्कालीन मध्यप्रदेश में भी विधायक रहे और साल 2003 विधानसभा चुनाव में जीत कर आए. उन्हें वन आवास एवं पर्यावरण विभाग का मंत्री बनाया गया. गणेशराम भगत, दिलीप सिंह जूदेव के खास माने जाते थे. 2008 में दिलीप सिंह जूदेव से अनबन होने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें सीतापुर से टिकट दिया. वहां गणेशराम चुनाव हार गए. 2013 में विधानसभा चुनाव के दौरान उन्हें टिकट नहीं दिया गया था, जिसके बाद उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा. इस दौरान उन्होंने पार्टी के खिलाफ भी जमकर नारेबाजी की, जिसके कारण उन्हें पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया गया था. हालांकि 2018 विधानसभा चुनाव के दौरान संघ की पहल पर उनका निष्काषन रद्द किया गया.
सोहन पोटाई: भारतीय जनता पार्टी में आदिवासी नेता के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने वाले सोहन पोटाई कांकेर से चार बार सांसद रहे. सोहन पोटाई उन दिनों चर्चा में आए जब उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा को हराया था. उसके बाद पोटाई लगातार कांकेर लोकसभा चुनाव जीतते रहे. साल 2014 में उन्हें टिकट नहीं मिलने के कारण वे लगातार पार्टी के खिलाफ बयान बाजी करते रहे, जिसके कारण उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया, साल 2018 विधानसभा चुनाव के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारियों ने उन्हें पार्टी में दोबारा लाने की कोशिश की लेकिन यह कोशिश नाकाम रही.