कोरबा : प्रदेशभर में आज कबीर जयंती मनाई जा रही. जगह-जगह तमाम तरह के आयोजन भी किए जा रहे है. वहीं जयंती को लेकर लोगो में काफी हर्ष उल्लास भी देखने को मिल रहा है.कबीर दास एक रचनाकार के साथ-साथ एक महापुरुष, सफल साधक और समाज सुधारक भी थे. आइए चलते है कबीर दास से जुड़े उस इतिहास की ओर जो कोरबा से जुड़ी है.
कुदुरमाल धाम के महंत मोती दास ने कबीर दास जयंती पर उनकी जीवनी का जिक्र करते हुए बताया कि भारत में कबीर पंथ की मुख्य रूप से तीन शाखाएं हैं. जिसमें कबीरचौरा शाखा, भगताही शाखा और छत्तीसगढ़ की शाखा है. छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ के पहले वंशगुरु कहलाए मुक्तामणि साहब ने प्रदेश में कबीर पंथ के प्रचार प्रसार की शुरुआत कोरबा जिले के ग्राम कुदुरमाल से की थी.
मध्यप्रदेश के उमरिया जिले के करीब बांधवगढ़ के रहने वाले संत दानी धर्मदास कबीर के प्रमुख शिष्य हुए. संत कबीर से गुरु दीक्षा लेकर धर्मदास ने अन्य जीवों को कबीर पंथ का पाठ पढ़ाया. लेकिन धर्मदास के बेटे नारायण दास कबीर को मानने से इनकार कर दिया. इसके बाद उन्होंने कबीर से दूसरे पुत्र की मांग की और फिर मुक्तामणि साहेब का जन्म हुआ.
क्या है कहानी-
- मुक्तामणि साहेब ने धर्मदास के समाधि लेने के बाद कबीर पंथ के प्रचार प्रसार की कमान संभाली. यहां के महंत बताते हैं कि मुक्तामणि साहेब का जब बांधवगढ़ में राजतिलक हो रहा था तब नारायण दास विरोध में खड़ा हो गया. इस विरोध के बाद मुक्तामणि साहेब बांधवगढ़ छोड़कर छत्तीसगढ़ के कुदुरमल आ पहुंचे.
- कबीरपंथ में बताई गई कहानी के अनुसार मुक्तामणि साहेब ने कुदुरमल में हसदेव नदी के किनारे एक पीपल पेड़ के नीचे अपना आश्रय बना लिया. अचानक एक दिन भोर में पीपल पेड़ में लगी घड़ी घंटियां बजने लगी, जो कभी नहीं बजी थी. ग्रामीणों ने वहां मुक्तामणि साहेब को बैठे देखा. इसकी जानकारी ग्रामीणों ने कोरवा राजा को दी. राजा ने इस आश्चर्य के बाद उनका अपने राज महल में स्वागत सत्कार किया.
- महंत मोती दास आगे बताते हैं कि कोरवा राजा और मुक्तामणि साहेब के बीच पानी में एक दूसरे को ढूंढने का खेल खेला गया. इस खेल में मुक्तामणि साहब तो कोरवा राजा को ढूंढने में सफल रहे, लेकिन कोरवा राजा मुक्तामणि साहेब को नहीं ढूंढ पाए.
- कहा जाता है कि ये सब देखने के बाद कोरवा राजा ने उत्साह में मुक्तामणि साहब को 500 एकड़ जमीन दान कर दी. उनके लिए हवेली का निर्माण कराया और इसी हवेली के बाहर मुक्तामणि साहेब की समाधि है.
- कबीरपंथ की कहानी के अनुसार मुक्तामणि साहेब जब बांधवगढ़ से निकले थे तब उनके पास केवल एक दातुन था. मुक्तामणि साहेब का मानना था कबीर पंथ के प्रचार प्रसार के लिए अपना एक अंश उस खास जगह पर छोड़कर जाना जरूरी है. कहा जाता है कि मुक्तामणि साहब ने अपनी दातुन वहीं छोड़ दिया था जो आज एक विशाल नीम का पेड़ बन चुका है. इतना ही नहीं बल्कि कहानी के अनुसार मुक्तामणि साहेब ने जहां कुल्ला किया था, वहां आज एक तालाब है और वो कभी नहीं सूखता है. कहा ये भी जाता है कि इससे चर्म रोग ठीक हो जाता है.
- इस तरह से छत्तीसगढ़ और देश में मुक्तामणि साहब कबीर पंथ के प्रचार प्रसार के पहले वंशज कहलाए और इनके बाद से अब तक सोलवीं पीढ़ी जन्म ले चुकी है. सद्गुरु कबीर के अनुसार अटल 42 यानी कुल 42 पीढियां जन्म लेंगी जो इसे आगे ले जाएंगी.
- कबीरपंथियों की सबसे प्राचीन और प्रथम धर्मिक स्थल पर बनी इस हवेली की दशा दयनीय हो गई. बीते 500 सालों से हवेली खड़ी है. जब से राज्य पुरातत्व विभाग ने इसे अपनी देखरेख में लिया है. उसके बाद से एक रुपए इसके रखरखाव में खर्च नहीं किए गए. आलम यह है कि आस पास प्लांट और खदानें खोदी जा रही हैं, एक बड़ा ब्लास्ट या कोई बड़ी आपदा से इस हवेली का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.