कोरबा:कोरबाजिले को प्रदेश की ऊर्जाधानी के तौर पहचान तो मिली है. लेकिन इसके साइड इफेक्ट कितने घातक हैं. यह समझना हो तो, लीलागर नदी के वर्तमान स्वरूप को देख कर इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. जिले की पूर्वी पहाड़ियों से निकलने वाली लीलागर नदी का उद्गम स्थल ही कोरबा है. लीलागर दशकों से कोयलांचल क्षेत्र हरदीबाजार और आसपास के दर्जनभर गांव के ग्रामीणों के लिए जीवनदायिनी रही है.
ये जिले के पूर्व में बिलासपुर और जांजगीर जिले से कोरबा की सीमाओं का निर्धारण करते हुए शिवनाथ नदी में मिल जाती है. कुल प्रवाह क्षेत्र 135 किलोमीटर है. लेकिन अब लीलागर अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है. जिम्मेदार मौन हैं और ग्रामीण कभी कलकल बहने वाली इस नदी की स्थिति को देखकर आहत हैं.
दशकों से झेल रही औद्योगिक प्रदूषण की मार : लीलागर नदी का उद्गम स्थल हरदीबाजार के समीप जिले की पूर्वी पहाड़ियों से होता है. यह क्षेत्र दीपका और गेवरा खदानों से घिरा हुआ है, जो एसईसीएल की मेगा परियोजनाएं हैं. खदानों से लाखों टन कोयला निकलता है. जानकारों की मानें तो जहां भी कोयला खदानों का विस्तार होता है, वहां का भू-जल स्तर काफी नीचे चला जाता है. यह स्तर इतना नीचे चला जाता है कि जल की स्थिति वहां से समाप्त हो जाती है. लीलागर नदी के जल भराव क्षेत्र में भी साल दर साल कमी आई है. खदानों से निकलने वाला कोयला युक्त पानी, ओवरबर्डन के मिट्टी और पत्थर नदी के दायरे को कम कर रहे हैं. जानकार और पर्यावरणविद लीलागर की इस स्थिति से काफी चिंतित हैं.
कभी कलकल बहती थी लीलागर, अब पत्थर ही पत्थर:लीलागर नदी एक समय काफी मनोरम हुआ करती थी. 2 साल पहले की बात है जब बरसात में इस नदी ने बाढ़ जैसे हालात पैदा कर दिए थे. काफी सारा पानी खदानों में चला गया था. तब दीपका खदान से कोयला उत्पादन भी प्रभावित हुआ था. लीलागर नदी में रेत से ज्यादा पत्थर हैं. इसलिए पानी सूखने के बाद नदी में पत्थर ही पत्थर दिखाई पड़ते हैं. कहीं-कहीं तो लीलागर नदी अब छोटे नाले जैसा प्रतीत होती है. जहां पानी बचा है, वहां इसका रंग मटमैला और काला हो चुका है. ग्रामीण इस पानी से निस्तारी करने से भी कतराते हैं. ग्रामीणों की मानें तो एक समय वह लीलागर के पानी को पेयजल के तौर पर इस्तेमाल करते थे.