कांकेर:छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में रहने वाले लोग हर मोर्चे पर चुनौती का सामना कर रहे हैं. न शासकीय योजनाओं का लाभ ठीक से मिल पाता है और न ही रोजगार का साधन. इधर कोरोना वायरस के संक्रमण ने रही-सही कसर पूरी कर दी है. बांस से सुंदर-सुंदर सामान बनाकर बेचने वाले ये हाथ पैसों-पैसों के लिए मोहताज हो गए हैं. परिवारों के सामने पेट पालने का संकट खड़ा हो गया है.
कोयलीबेड़ा ब्लॉक के कोतुल गांव में रहने वाले पारधी जनजाति के 15 परिवारों की हालत ऐसी है कि कभी-कभी उन्हें सिर्फ एक वक्त का खाना मिलता है. यहां रहने वाले ग्रामीण कुमेश नेताम बताते हैं कि घास-पूस से बने मकान में उसका और उसके भाई का परिवार 7 बच्चों के साथ रहता है. पहले बांस से सूपा, टोकरी और अन्य सामान बनाकर गुजारा कर लेते थे लेकिन कोरोना ने उनका रोजगार भी छीन लिया. कुमेश कहते हैं कि आसपास के बाजार बंद हैं, ऐसे में वो अपना सामान बेचने जाएं भी तो कहां.
नहीं मिल रहा योजनाओं का लाभ
ग्रामीण का कहना है कि राशन कार्ड तो बना है पर एपीएल जिससे उन्हें अतिरिक्त दाम में अनाज खरीदना पड़ता है. सरकार योजनाओं का लाभ नहीं मिलता. पारधी जनजाति की महिला बताती हैं कि वे दिनभर में एक बांस से एक टोकरी बनाती हैं. दिन भर में वे दो से तीन टोकरियां भी बना सकती हैं. एक टोकरी में करीब सौ रुपए का खर्च आता है लेकिन बाजार में वो भी नहीं मिल पाता. महिला का कहना है कि सरकार ने 150 नग बांस देने का वादा किया था लेकिन 2016 के बाद से बांस नहीं दे रही है.