जशपुर: आदिवासी जनजातिय बाहुल्य जिले में आदिवासी समाज के द्वारा सरहुल सरना पूजा पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है. इस पर हिन्दू आदिवासी सरना माता, भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा अर्चना करते हैं. साथ ही आदिवासी संस्कृति के प्रति सरहुल नृत्य से समाज को प्रकृति के महत्व के बारे में सीख दी जाती है.
आदिवासी संस्कृति के प्रतीक इस सरहुल सरना पूजा में आदिवासी समाज के हजारों श्रद्धालु एकजुट हुए. शोभायात्रा पारंपरिक वेशभूषा में सजे हुए जनजातीय समाज के लोगों द्वारा ढोल और मांदर की थाप पर नृत्य के साथ दीपू बगीचा से निकल कर बिरसा मुंडा चौक होते हुए, महाराजा चौक से जैन मंदिर चौक होते हुए वापस दीपू बगीचा जाती है. इसके बाद ये शोभायात्रा समाप्त हो कर सभा में तब्दील हो जाती है.
हर साल मनाया जाता है सरहुल
बता दें कि सरहुल का पर्व आदिवासी जनजाति समाज के द्वारा चैत्र मास में प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है. इस अवसर पर आदिवासी समाज के नगर पालिका के अध्यक्ष हीरु राम निकुंज ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि ये सरहुल चैत्र मास में मनाया जाने वाला महापर्व है. आदिवासी संस्कृति का जन्म विकास प्रकृति की गोद में हुआ है. हमारी पूजा पद्धति और हमारे त्योहार प्रकृति से जुड़े हुए हैं.
समाज के नेता शशि भगत ने कहा कि सरहुल आदिवासियों की आस्था और समृद्धि का प्रतीक है. उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज के लोग ज्ञान के अभाव में लोगों के बहकावे में आकर इस सनातन समाज और खद्धि पर्व को छोड़कर चले जा रहे हैं. उन्हें अपनी संस्कृति की ओर लौटाना होगा. सभी गांव के लोग दीपू बगीचा में एकत्र होकर इस पर्व को मनाते हैं. हम लोग नए वर्ष के उपलक्ष्य में इसे मानते हैं.
सरई के फूल की होती है पूजा
मूल रूप से सरहुल पूजा में सरई के फूल से पूजा की जाती है. साथ ही नववर्ष में जितने फल-फूल होते हैं उनकी पूजा करते हैं. इस शोभायात्रा में 85 गांव के लोग हिसा लेते हैं.