जगदलपुर: अपनी अनोखी और आकर्षक परंपराओं के लिए विश्व में प्रसिद्ध बस्तर दशहरा का आरंभ 16 अक्टूबर की रात काछनगादी रस्म के साथ शुरू हो जाएगी. 75 दिनों तक चलने वाला बस्तर दशहरा दुनिया का सबसे बड़ा लोकपर्व भी कहा जाता है. 12 से ज्यादा रस्में इस उत्सव को अनूठा बना देती हैं और ये सारी रस्में ही बस्तर में मनाए जाने वाले दशहरे को अलग रंग देती हैं. दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति लेने की यह परंपरा भी अपने आप में अनूठी है. काछनगादी नामक इस रस्म में एक नाबालिक कुंवारी कन्या कांटों के झूले पर लेटकर दशहरा पर्व को आरंभ करने की अनुमति देती है. ETV भारत लगातार आप तक बस्तर दशहरा की हर खबरें पहुंचा रहा है.
बस्तर दशहरा की रस्म काछनगादी करीब 600 सालों से चली आ रही परंपरा की मान्यता अनुसार कांटों के झूले पर लेटी कन्या के अंदर साक्षात काछनदेवी आकर पर्व को आरंभ करने की अनुमति देती है. लेकिन लंबे समय से इस दशहरा पर्व की महत्वपूर्ण रस्म में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रमुख परिवार और पुजारियों को प्रशासन की उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है.
उपवास रखने वाली बच्ची को नहीं मिलती कोई सुविधा
दरअसल बस्तर दशहरे में हर साल प्रशासन लाखों रुपए खर्च करती है. दशहरे की सबसे महत्वपूर्ण रस्म काछनगादी में देवी की भूमिका निभा 9 दिनों तक उपवास रखने वाली 12 साल की बच्ची और इस रस्म से जुड़े सभी पुजारियों को प्रशासन के सौतेले रवैए के चलते असुविधाओं का सामना करना पड़ता है. दशहरा समिति न ही इनकी कोई आर्थिक सहायता करती है और ना ही किसी प्रकार की सुविधा उपलब्ध कराती है.
9 दिनों तक उपवास रखेगी 12 साल की अनुराधा - सदियों से चली आ रही इस परंपरा में देवी के रूप में कांटों के झूले पर बैठाए जाने वाली बच्ची का नाम अनुराधा दास है.
- अनुराधा पिछले 5 सालों से देवी के रूप में काछनगादी की इस रस्म में कांटों के झूले पर बैठती है.
- इस रस्म में एक विशेष परिवार के अविवाहित कन्याओं को ही कांटों के झूले में बैठाया जाता है.
- इस रस्म से पूर्व कन्या को 9 दिनों का उपवास रखना पड़ता है.
- परंपरा के अनुसार अविवाहित कन्या को कुरंदी ग्राम के जंगलों से लाए विशेष बेल के कांटों के झूलों पर लिटाकर झुलाया जाता है.
- उसके बाद पर्व के मुखिया दशहरा की शुरुआत करने की आज्ञा मानते हैं.
- इस दौरान माना जाता है कि युवती में साक्षात देवी समाकर उसके जरिए पर्व की शुरुआत करने का आदेश देती है.
'9 दिनों तक उपवास रखने वाली बच्ची को नहीं मिलती मदद'
जहां यह बच्ची काछनकादी रस्म की अदायगी के लिए 9 दिनों तक उपवास रखती है, लेकिन प्रशासन की ओर से अनुराधा को किसी प्रकार की मदद नहीं मिलती. यहां तक कि उपवास के दौरान उसे खाने को फल तक मुहैया नहीं कराया जाता है. अनुराधा के पिता शिव प्रसाद का कहना है कि प्रशासन के आला अधिकारियों से मांग करने के बावजूद उन्हें किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिलती है. लिहाजा उन्हें अपने पैसों से ही अपने और अनुराधा के लिए जरूरी चीजें लेनी पड़ती हैं.
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हालांकि प्रशासन 9 दिनों तक सिर्फ उन्हें दाल चावल प्रदान करती है. इसके अलावा इन्हें किसी भी तरह की मदद नहीं मिलती है. हर साल विश्व प्रसिद्ध दशहरा पर्व में शासन-प्रशासन लाखों रुपए खर्च करने का दावा करते हैं, लेकिन इस पर्व की सबसे महत्वपूर्ण रस्म में शासन की अनदेखी के चलते काछनगादी रस्म से जुड़े सभी पुजारी और 12 साल की मासूम बच्ची और उसके परिवार को असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है.
बस्तर दशहरे से जुड़ी रोचक जानकारी
दशहरे के दौरान पूरा देश जहां रावणदहन कर विजयादशमी का पर्व मनाता है. इन सबसे अलग कभी रावण की नगरी रहे बस्तर में आज भी रावणदहन नहीं किया जाता है.
पहली रस्म-
- बस्तर में एतिहासिक विश्व प्रसिद्ध दशहरा पर्व की पहली और मुख्य रस्म पाटजात्रा होती है, हरियाली के अमावस्या के दिन यह रस्म अदायगी के साथ बस्तर में दशहरा पर्व की शुरुआत होती है.
- परंपरा के मुताबिक इस रस्म में बिंरिगपाल गांव से दशहरा पर्व के रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाई जाती है, जिससे रथ के चक्के का निर्माण किया जाता है.
- हरियाली के दिन विधि विधान से पूजा के बाद इसी लकड़ी से विशाल रथ का निर्माण किया जाता है.
दूसरी रस्म
- बस्तर दशहरा की दूसरी महत्वपूर्ण रस्म डेरी गड़ाई होती है. मान्यताओं के अनुसार इस रस्म के बाद से ही बस्तर दशहरे के लिए रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है.
- सैकड़ों सालों से चली आ रही इस परंपरा के मुताबिक बिरिंगपाल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है.
- विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना कर इस रस्म कि अदायगी के साथ ही रथ निर्माण के लिए माई दंतेश्वरी से आज्ञा ली जाती है.
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तीसरी रस्म
- 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरे की तीसरी प्रमुख पंरपरा है रथ परिक्रमा. रथ परिक्रमा के लिए रथ का निर्माण किया जाता है, इसी रथ पर मां दंतेश्वरी देवी को बिठकार शहर की परिक्रमा कराई जाती है.
- लगभग 30 फीट ऊंचे इस विशालकाय रथ को परिक्रमा कराने के लिए 400 से अधिक आदिवासी ग्रामीणों की जरूरत पड़ती है.
- रथ निर्माण में प्रयुक्त सरई की लकड़ियों को एक विशेष वर्ग के लोगों द्वारा लाया जाता है. बेड़ाउमर और झाडउमर गांव के ग्रामीण आदिवासियों द्वारा 14 दिनों में इन लकड़ियों से रथ का निर्माण किया जाता है.
काछनगादी की रस्म
- बस्तर दशहरा का आरंभ देवी की अनुमति के बाद होता है. दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति लेने की यह परंपरा भी अपने आप में अनूठी है, काछन गादी नामक इस रस्म में एक नाबालिग कुंवारी कन्या कांटों के झूले पर लेटकर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है.
- इस परंपरा की मान्यता अनुसार कांटों के झूले पर लेटी कन्या के अंदर साक्षात देवी आकर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती हैं. अनुसूचित जाति के एक विशेष परिवार की कुंआरी कन्या विशाखा बस्तर राजपरिवार को दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है, 15 वर्षीय विशाखा पिछले 7 साल से काछनदेवी के रूप में कांटों के झूले पर लेटकर सदियों पुरानी इस परंपरा को निभाती आ रही हैं.
- नवरात्र के पहले दिन बस्तर की अराध्य देवी माई दंतेश्वरी के दर्शन के लिए हजारों की संख्या मंदिर पहुंचते हैं और मनोकामना दीप जलाते हैं.
जोगी बिठाई की रस्म
बस्तर दशहरा की एक और अनूठी और महत्वपूर्ण रस्म जोगी बिठाई है, जिसे शहर के सिरहासार भवन में पूर्ण विधि विधान के साथ संपन्न किया जाता है. इस रस्म में एक विशेष जाति का युवक प्रति वर्ष 9 दिनों तक निर्जल उपवास रख सिरहासारभवन स्थित एक निश्चित स्थान पर तपस्या के लिए बैठता है.
रथ परिक्रमा
इसके बाद होती है बस्तर दशहरे की अनूठी रस्म रथ परिक्रमा. इस रस्म में बस्तर के आदिवासियों द्वारा पारंपरिक तरीके से लकड़ियों से बनाए लगभग 40 फीट ऊंचे रख पर माई दंतेश्वरी के छत्र को बिठाकर शहर में घुमाया जाता है. 40 फीट ऊंचे और 30 टन वजनी इस रथ को सैंकड़ों ग्रामीण मिलकर खींचते हैं.
निशा जात्रा की रस्म
- बस्तर दशहरे की सबसे अद्भुत रस्म निशा जात्रा होती है. इस रस्म को काले जादू की रस्म भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इस रस्म को राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से अपने राज्य की रक्षा के लिए निभाते थे. निशा जात्रा कि यह रस्म बहुत मायने रखती है.
- दशहरा में विजयादशमी के दिन जहां एक तरफ पूरे देश में रावण के पुतले का दहन किया जाता है, वहीं बस्तर में विजयादशमी के दिन दशहरे की प्रमुख रस्म भीतर रैनी मनाई जाती है. मान्यताओं के अनुसार आदिकाल में बस्तर रावण की नगरी हुआ करती थी और यही वजह है कि शांति, अंहिसा और सद्भाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता है.
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- बस्तर दशहरा का समापन दंतेवाड़ा से पधारी माई जी की विदाई की परंपरा के साथ होता है. पूरी गरिमा के साथ जिया डेरा से दंतेवाड़ा के लिए विदाई देकर की जाती है. माई दंतेश्वरी की विदाई के साथ ही ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है.
- विदाई से पहले माई जी की डोली और छत्र को दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीन कर महाआरती की जाती है. यहां सशस्त्र सलामी बल देवी दंतेश्वरी को सलामी देता है और भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. विदाई के साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है.