दंतेवाड़ा: छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में भगवान गणेश की दुर्लभ प्रतिमा है. यहां परशुराम जी और भगवान गणेश के बीच युद्ध हुआ था. जिसमें गणेश जी का एक दांत टूट गया था. इसके बाद ही गणपति बाप्पा 'एकदंत' कहलाए.
ढोलकाल पर्वत जहां भगवान गणेश कहलाए थे एकदंत छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा से 30 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है ढोलकाल पर्वत श्रृंखला. ढोल के समान आकृति की वजह से इसका नाम ढोलकाल पड़ा. यहां करीब ढाई हजार फीट की ऊंचाई पर भगवान गणेश की दुर्लभ प्रतिमा विराजमान है. ऊपरी दाएं हाथ में फरसा, बाएं हाथ में टूटा हुआ एक दांत, नीचे दाएं हाथ में अभय मुद्रा में अक्षमाला और नीचे बांये हाथ में मोदक है.
भगवान गणेश की दुर्लभ प्रतिमा ललितासन मुद्रा, आयुध रूप में विराजमान
खास बात यह भी है कि भगवान गणेश की ये दुर्लभ प्रतिमा आयुध रूप में विराजित है. बप्पा यहां ललितासन मुद्रा में बैठे हुए हैं. ऐसी प्रतिमा बस्तर के अलावा और कहीं नहीं दिखाई देती है.
गणेश और परशुराम का हुआ था युद्ध
बस्तर के विशेष जानकार हेमंत कश्यप के मुताबिक ऐसी पौराणिक कथा प्रचलित है कि, ढोलकाल शिखर पर भगवान गणेश और परशुराम का युद्ध हुआ था. जिसमें भगवान गणेश का एक दांत टूट गया था. इसके बाद ही भगवान गणेश 'एकदंत' कहलाए. इस घटना की याद में ही छिन्दक नागवंशी राजाओं ने शिखर पर गणेश की प्रतिमा स्थापित की. परशुराम के फरसे से भगवान गणेश का दांत टूटा था, इसलिए पहाड़ के शिखर के नीचे ही गांव का नाम फरसपाल रखा गया है.
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महिला पुजारी के वंशज करते हैं पूजा
दक्षिण बस्तर के भोगा जनजाति आदिवासी परिवार अपनी उत्पत्ति ढोलकट्टा ढोलकाल की महिला पुजारी से मानते हैं. सबसे पहले इस ढोलकाल के पर्वत में चढ़कर भोगा जनजाति की महिला ने पूजापाठ शुरू किया. सुबह-सुबह इस महिला पुजारी के शंखनाद से पूरे ढोलकाल शिखर पर आवाज गूंजती थी. आज भी इसी महिला के वंशज भगवान गणेश की पूजा-अर्चना करते हैं.
छिंदक नागवंशी राजाओं ने स्थापित किया
बस्तर के जानकार संजीव पचोरी बताते हैं कि इस प्रतिमा को दंतेवाड़ा क्षेत्र के रक्षक के रूप में पहाड़ी की चोटी पर 11वीं शताब्दी में छिन्दक नागवंशी शासकों ने स्थापित किया था. गणेश जी के आयुध रूप में हाथ में फरसा इसकी पुष्टि करता है. यही वजह है कि इसे नागवंशी शासकों ने इतनी ऊंची पहाड़ी पर स्थापित किया था. नागवंशी शासकों ने इस प्रतिमा का निर्माण करते समय गणेश जी की प्रतिमा पर नाग को अंकित किया है. प्रतिमा अपना संतुलन बनाए रखे, इसलिए शिल्पकार ने जनेऊ में संकल का उपयोग किया है.
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11वीं शताब्दी की उत्कृष्ट कलाकृति
भगवान गणेश की प्रतिमा इंद्रावती नदी के तलहटी में पाए जाने वाले पत्थरों से बनी है. इसे 2 वर्ग मीटर क्षेत्र में पहाड़ी की चोटी पर स्थापित किया गया है. बैलाडीला पर्वत श्रृंखला की यह सबसे ऊंची चोटी है. इसकी बनावट और नक्काशी से पता चलता है कि 11वीं शताब्दी में भी इतनी उत्कृष्ट कलाकृति बनती थी.
फरसपाल में लगता है मेला
हर साल गर्मी के दिनों में इसी पर्वत के नीचे मौजूद फरसपाल गांव में 3 दिनों तक मेला लगता है. इस दौरान भगवान गणेश, परशुराम और स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा की जाती है.
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2500 फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थापित है प्रतिमा
खास बात ये भी है कि ढोलकाल पर्वत के ऊपर स्थापित प्रतिमा के ऊपर कोई गुंबद नहीं बनाया गया है. नैसर्गिक रूप से मौजूद पहाड़ी के ऊपर इस प्रतिमा को देखने के लिए करीब ढाई घंटे का सफर तय कर 2500 फीट ऊंची पहाड़ी पर चढ़ना पड़ता है.
दुर्गम रास्तों का सफर तय करने के बाद होते हैं ढोलकाल गणेश के दर्शन
छत्तीसगढ़ में सबसे ऊंची चोटी पर मौजूद गणेश की प्रतिमा को देखने दुर्गम पहाड़ों और नालों को पार कर पहुंचा जा सकता है. यही वजह है कि यहां लोग कम ही आते हैं. आसपास के ग्रामीण ही पूजा-अर्चना करते हैं. इस स्थल को और विकसित करने की जरूरत है. राज्य सरकार और पर्यटन विभाग को ध्यान देना चाहिए ताकि इस दुर्लभ प्रतिमा को देखने के लिए प्रदेश ही नहीं बल्कि देश-विदेश से भी बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंच सकें.