जगदलपुर: जगदलपुर शहर से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोटमसर गुफा को छत्तीसगढ़ का पाताल लोक भी कहा जाता है. कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के कक्ष क्रंमाक 85 में स्थित यह गुफा भारत की अकेली जबकि दुनिया की सातवीं भूमिगत गुफा है. यहां कहीं और किसी तरफ से सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती. पेट्रोमैक्स, टार्च और गाइड की मदद से ही यहां पहुंचा जा सकता है.
इस गुफा की खोज वर्ष 1900 के आस-पास यहां रहने वाले आदिवासियों ने की थी. इसका पुराना नाम 'गुपानसर गुफा' है. बरसाती नाला गुफा से होकर बहता है और इसका पानी पत्थरों के खोह से होते हुए कांगेर नदी में चला जाता है. गुफा के इसी पानी में पाई जाती हैं देश की दुर्लभ प्रजाति की अंधी मछलियां. गुफा में जमीन से लगभग 40 फीट की गहराई में महल के सभागार सा विशाल स्थान है. करीब 150 फीट तक ऊंची दीवारें और इसके ऊपर झूमरनुमा आकृतियां हैं.
शंकर तिवारी ने किया था पहली बार गुफा का सर्वे
जानकारी के मुताबिक वर्ष 1951 में बिलासपुर के डॉ. शंकर तिवारी ने पहली बार गुफा का सर्वे किया था. इनके सम्मान में यहां पाई जाने वाली मछलियों का नाम कैम्पियोला शंकराई रखा गया. ऐसी मछलियां केरल की कुछ गुफाओं में भी पाई जाती हैं. कांगेर वैली नेशनल पार्क के संचालक अशोक पटेल ने बताया कि 'गुफा के अंदर घुप अंधेरा रहता है. बिना रोशनी के गुफा में प्रवेश असंभव है.
मछलियों को ग्रामीण 'पखना तुरू' कहते हैं
नाले में बाढ़ के समय पारंपरिक मछलियां कांगेर नदी से चढ़कर गुफा के कुंडों तक पहुंचती हैं. इन मछलियों को ग्रामीण 'पखना तुरू' कहते हैं. इसका वैज्ञानिक नाम इंडोनियोरेक्टस इवेजार्डी है. लंबे समय तक अंधेरे में रहने के कारण इनकी आंखों की उपयोगिता खत्म होती गई, जिससे उस पर चर्बी की परत चढ़ गई. इनकी त्वचा भी सफेद हो गई, इसलिए इन्हें एल्बिनिक भी कहा जाता है.