Bastar Dussehra Bahar Raini Rasm: बाहर रैनी की रस्म अदायगी हुई पूरी, रथ परिक्रमा का हुआ समापन, माड़िया के साथ खाई नवाखानी - क्या है बाहर रैनी रस्म
Bastar Dussehra Bhitar Raini बुधवार को ऐतिहासिक बस्तर दशहरा की बाहर रैनी रस्म धूमधाम के साथ निभाई गई. "बाहर रैनी" रस्म को देखने के लिए भारी संख्या में पर्यटक और श्रद्धालु पहुंचे थे. इसके साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले ऐतिहासिक बस्तर दशहरा में रथ परिक्रमा का समापन हो गया. Jagdalpur news
जगदलपुर:विजयदशमी के दिन पूरे देश में रावण का पुतला दहन करने की परंपरा है. लेकिन 75 दिनों तक चलने वाले ऐतिहासिक बस्तर दशहरा में रावण का पुतला दहन नहीं होता है. बल्कि विजयदशमी के दिन बस्तर दशहरा की प्रमुख भीतर रैनी रस्म निभाई जाती है और अगले दिन बाहर रैनी रस्म निभाई जाती है. बुधवार को भी इस साल के बस्तर दशहरा के तहत बाहर रैनी रस्म की अदायगी पूरे रीति रीवाज के साथ की गई.
बाहर रैनी रस्म के साथ रथ परिक्रमा का समापन:बीते मंगलवार को देर रात तक भीतर रैनी रस्म निभाया गया. जिसके बाद अगले दिन बुधवार को बाहर रैनी रस्म भी पूरे रीति रीवाज और परंपरानुसार मनाया गया. बस्तर के सैकड़ों देवी देवता भी इस रस्म में शामिल हुए. इसके साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले ऐतिहासिक बस्तर दशहरा में रथ परिक्रमा का समापन हो गया. इस आखिरी रथ परिक्रमा के रस्म को "बाहर रैनी" रस्म कहा जाता है. इसे देखने के लिए भारी संख्या में पर्यटक और श्रद्धालु पहुंचे थे.
क्या है बाहर रैनी रस्म: बाहर रैनी बस्तर दशहरा की एक महत्वपूर्ण रस्म है, जो भीतर रैनी रस्म के बाद पूरी की जाती है. भीतर रैनी रस्म में 8 चक्के के विजय रथ को परिक्रमा कराने के बाद आधी रात को इसे माडिया जाति के लोग चुरा लेते हैं. रथ चोरी करने के बाद इसे शहर से लगे कुम्हडाकोट ले जाते हैं. जिसके बाद राज परिवार के सदस्य कुम्हड़ाकोट पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर और उनके साथ नए चावल से बने खीर नवाखानी खाई के बाद रथ को वापस शाही अंदाज में राजमहल लाया जाता है. इसे बाहर रैनी की रस्म कहा जाता है.
क्या है भीतर रैनी रस्म: भीतर रैनी बस्तर दशहरा की एक महत्वपूर्ण रस्म है. बस्तर के जानकार बताते हैं कि भीतर रैनी के दिन चलने वाले रथ को विजय रथ कहा जाता है. इस रथ में 8 पहिये होते हैं. इससे पहले 6 दिनों तक फूल रथ चलाया गया था. जो 4 पहिए का होता है. इस रथ को आधी रात में माडिया जाति के लोग चुरा लेते हैं. इसे ही भीतर रैनी की रस्म कहा जाता है.
ऐसे हुई बस्तर दशहरा की शुरुआत: बस्तर के राजा पुरषोत्तम देव अपने लाव लश्कर के साथ पदयात्रा करते हुए जगन्नाथ पुरी पहुंचे थे. जहां से उन्हें रथपति की उपाधि मिली. इसे ग्रहण करने के बाद राजा बस्तर पहुंचे और उस समय से बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा शुरू की गई. जो की आज तक करीब 600 सालों से अनवरत चली आ रही है.
भीतर और बाहर रैनी रस्म का इतिहास:बस्तर राजपरिवारके कमलचंद भंजदेव ने बताया, "राजशाही युग में बस्तर दशहरा में रथ चलाने की शुरुआत हुई. तब माड़िया जनजाति के लोगों को किसी प्रकार की कोई जिम्मेदारी नहीं दी गई थी. जिससे नाराज माड़िया जाति के लोगों ने आधी रात को राजमहल से रथ चुराकर करीब 4 किलोमीटर दूर कुम्हडाकोट के जंगल में छिपा दिए थे. रथ चुराने के बाद आदिवासियों ने राजा से नयाखानी साथ में खाने की मांग थी. इस बात की जानकारी लगते ही राजा अपने लाव लश्कर, गाजे बाजे के साथ, आतिशबाजी करते हुए दूसरे दिन कुम्हड़ाकोट पहुंचे और ग्रामीणों का मान मनौवल कर उनके साथ भोज किया. इसके बाद रथ को शाही अंदाज में वापस जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लेकर पहुंचे. इस रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है."
दशहरा पर रावण दहन के बजाय शक्ति पूजा: मान्यताओं के अनुसार, आदिकाल में बस्तर रावण की नगरी हुआ करती थी. यही वजह है कि शांति, अंहिसा और सदभाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता. इस दिन भीतर रैनी और बाहर रैनी की रस्म निभाई जाती है. दशहरा के दिन बस्तर में शक्ति की अराधना की जाती है. बस्तर की आराध्या देवी माता दंतेश्वरी के छत्र को इस दौरान पूरे शहर का भ्रमण कराया जाता है.