बस्तर/ रायपुर: (Bastar Dussehra 2022) विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा अपनी रस्मों को लेकर पूरे विश्व में सबसे अनूठा और अलग दशहरा है. जिसे देखने के लिए देश और विदेशों से भी लोग आते हैं. 600 साल पुराने 75 दिवसीय बस्तर दशहरे की इस परंपरा को 12 से अधिक अनूठी रस्मों के लिए जाना जाता है (World Famous Bastar Dussehra). बस्तर दशहरे में रावण का दहन नहीं किया जाता है. बस्तर दशहरे में 9 दिनों तक शहर की परिक्रमा करने वाला रथ काफी विशालकाय होता है. यह रथ करीब 40 फीट ऊंचा होता है (Bastar Dussehra rituals).
बस्तर दशहरा की रस्में
पाट जात्रा रस्म: विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व की पहली और मुख्य रस्म पाटजात्रा होती है. हरियाली की अमावस्या के दिन यह रस्म पूरी की जाती है. इस रस्म में बिंरिगपाल गांव से दशहरा पर्व के रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाई जाती है. जिससे रथ के चक्के का निर्माण किया जाता है. हरियाली के दिन विधि विधान से पूजा होती है. इसलिए इसे हरियाली की अमावस्या के दिन किया जाने वाला पूजा कहते हैं.
डेरी गड़ाई रस्म: बस्तर दशहरा की दूसरी रस्म डेरी गड़ाई की होती है. इस रस्म के बाद से ही बस्तर दशहरे के लिए रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है. करीब 400 साल से चली आ रही इस परम्परानुसार बिरिंगपाल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है. उसके बाद पूजा अर्चना कर मां दंतेश्वरी से रथ निर्माण की अनुमति ली जाती है.
रथ निर्माण की रस्म: बस्तर दशहरा में तीसरी रस्म रथ निर्माण की रस्म होती है. इस रस्म के तहत मां दंतेश्वरी को रथ में बिठाकर शहर की परिक्रमा कराई जाती है. तीस फीट ऊंचा रथ होता है. इसे खींचने के लिए करीब 400 से अधिक ग्रामीणों की जरूरत पड़ती है. रथ को बनाने में सरई की लकड़ियों का प्रयोग होता है.
काछनगादी रस्म: बस्तर दशहरा की औपचारिक शुरुआत काछनगादी रस्म से होती है. इसमें देवी की अनुमति ली जाती है. काछन गादी की इस रस्म में एक नाबालिग कुंवारी कन्या कांटों के झूले पर लेटकर बस्तर दशहरा उत्सव को शुरू करने की अनुमति देती है. यह परंपरा करीब 600 वर्षों से चली आ रही है.
जोगी बिठाई रस्म: बस्तर दशहरा में जोगी बिठाई की रस्म सिरहासार भवन में पूरा किया जाता है. एक विशेष जाति का युवक हर साल की तरह इस रस्म के तहत 9 दिनों तक निर्जला उपवास पर रहता है. वह सिरहासार भवन स्थित एक निश्चित स्थान पर तपस्या करता है
रथ परिक्रमा रस्म: इर रस्म में रथ को पूरे शहर में घुमाया जाता है. अर्थात रस्म की परिक्रमा कराई जाती है. जानकारों के मुताबिक सन 1420 में तात्कालिक महाराजा पुरषोत्तम देव ने की थी. महाराजा पुरषोत्तम ने जगन्नाथपुरी जाकर रथ पति कि उपाधि हासिल की थी.
बेल पूजा रस्म: इस रस्म में बस्तर शहर के समीप लगे सर्गीपाल में एक बेल के पेड़ की पूजा करने की प्रथा है. बस्तर के राजकुमार इस पूजा को करते हैं. यह पूजा काफी धूमधाम से की जाती है.
निशा जात्रा: निशा जात्रा रस्म बस्तर दशहरे की सबसे अनोखी रस्म है. इर रस्म को काला जादू भी कहा जाता है. इस रस्म के जरिए राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से अपने राज्य की रक्षा करने का काम करते थे. इसमें जानवरों की बलि दी जाती थी. अब 11 बकरों की बलि दी जाती है.
मावली परघांव रस्म: बस्तर दशहरा में मावली परघांव रस्म के तहत दो दोवियों का मिलन होता है. दंतेश्वरी मंदिर के प्रांगण में इसे अदा किया जाता है. इस रस्म में शक्तिपीठ दन्तेवाड़ा से मावली देवी की क्षत्र और डोली को जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लाया जाता है, जिसका स्वागत बस्तर के राजकुमार और बस्तरवासियों की तरफ से किया जाता है. यह नवमी को मनाया जाता है.
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भीतर रैनी बाहर रैनी रस्म: बस्तर दशहरा में भीरत रैनी और बाहर रैनी रस्म का खास महत्व है. भीतर रैनी रस्म में रथ परिक्रमा पूरी होने पर आधी रात को रथ चुराकर माड़िया जाति के लोग शहर से लगे कुम्हडाकोट ले जाते हैं. फिर राजा उसके अगले दिन बाहर रैनी रस्म के दौरान कुम्हडाकोट पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर उनके साथ भोजन करते हैं. फिर रथ वापस लाया जाता है.
मुरिया दरबार रस्म: मुरिया दरबार में बस्तर के राजा माझी चालकियों और दशहरा समिति के सदस्यों से मुलाकात कर उनकी समस्या सुनते हैं. लेकिन अब इस प्रथा को प्रदेश के सीएम निभाते हैं. राजा के स्थान पर वह माझी चालकियों से मुलाकात करते हैं और उनकी समस्याओं का निराकरण करते हैं.
डोली विदाई और कुटुम्ब जात्रा पूजा की रस्म: विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का समापन डोली विदाई और कुटुंब जात्रा पूजा के साथ की जाती है. दंतेवाड़ा से आई मां को जिया डेरा से विदा किया जाता है. विदाई से पहले मांई की डोली और छत्र को स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीन कर महाआरती की जाती है. यहां सुरक्षाबलों के द्धारा माई को सशस्त्र सलामी दी जाती है. इस तरह 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरे का समापन हो जाता है.