धमतरी:देश में कई ऐसे जगह हैं जहां के लोगों की सोच आज भी पुरानी है. लोग आज के दौर में भी पुरानी परम्परा को कायम रखे हुए हैं. कुछ जगहों पर तो पौराणिक परम्परा भी अजीबो-गरीब होती है. दरअसल, हम बात कर रहे हैं धमतरी के सदबाहरा गांव की. यहां देवी के प्रकोप के भय से महिलाएं सजती ही नहीं है. यहां तक कि सिंदूर तक नहीं लगाती. यहां लकड़ी के ऊपर बैठना भी वर्जित है. जी हां, ये सारी अजीबो-गरीब नियम बस देवी के प्रकोप के भय से लोग मान रहे हैं.
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यहां श्रृंगार है वर्जित
ये एक ऐसा गांव है, जहां की औरत न तो श्रृंगार करती है और न ही खाट पर सोती है. यहां तक कि लकड़ी की बनी हुई कोई भी वस्तु पर बैठती तक नहीं है. यहां की औरतें जमीन पर ही सोती हैं....हैरत की बात है कि इस गांव की महिलाएं अपने मांग में सिंदूर तक भरने से खौफ खाती हैं. ये परंपरा गांव में सदियों पहले एक देवी के प्रकोप के कारण बनाई गई थी. ग्रामीणों का कहना है कि अगर कोई भी गांव में इसे तोड़ने की जुर्रत करता है तो गांव में आफत आ जाती है, जिसके कारण ये परंपरा आज तक बदस्तूर जारी है.
यहां विवाहित महिलाओं के सजने संवरने पर है पाबंदी आस-पास के गांवों में भी है इस अजीब परम्परा की चर्चा
धमतरी जिला मुख्यालय से करीब 90 किलोमीटर की दूरी पर नगरी इलाके में सदबाहरा गांव है.यहां की अजब परंपरा आस-पास के गांव तक चर्चित है. गांव में तकरीबन 40 परिवार रहते हैं और यह गांव अपनी एक परंपरा के कारण जाना जाता है. यहां महिलाओं को खाट, पलंग, कुर्सी इत्यादि पर बैठने की इजाजत नहीं है. यहां के महिलाओ को श्रृंगार करने की मनाही है. ऐसी मान्यता है कि अगर महिलाएं श्रृंगार करेंगी तो ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रहेंगी या फिर उसे कोई न कोई बीमारी जरूर हो जाएगी.
ये है प्रथा के पिछे की कहानी
इसके पीछे एक कहानी छुपी है. गांव के बुजुर्गों का कहना है कि गांव की देवी ऐसा करने से नाराज हो जाती हैं और गांव पर संकट आ जाता है.गांव में ही एक पहाड़ी है, जहां कारीपठ देवी रहती है.गांव प्रमुख की मानें तो 1960 में एक बार गांव के लोगों ने इस परंपरा को तोड़ा था, जिसके बाद गांव की महिलाओं को कई तरह की बीमारियों ने घेर लिया और मौतें भी होने लगी. यहां तक कि जानवर मरने लगे और बच्चे बीमार होने लगे. सबको यही लगा कि ये देवी का प्रकोप है और परंपरा टूटने के कारण ऐसा हुआ है. फिर क्या था...इसके बाद किसी ने भी इस परंपरा तोड़ने की जुर्रत नहीं की.
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गांव में कोई भी खुशी का पल हो दिवाली, दशहरा या फिर तीज-त्यौहार, या किसी की शादी...ऐसे समय में भी महिलाए श्रृंगार नहीं करती. बिंदिया, पायल, लिपस्टिक तो दूर की बात है यहां तक कि महिलाए मांग मे सिंदूर तक नहीं भरती. डर है तो बस देवी मां के प्रकोप का. जिसे गांव की कोई भी महिला आज तक तोड़ने की जुर्रत नहीं की है. यहां तक कि ये परंपरा इस गांव में आने वाले दूसरे गांवो के लोगों पर भी लागू हो जाता है. गांव में महिलाओं के बैठने के लिए ईंट-सीमेंट के ओट व टीले का निर्माण किया गया है. घर के अंदर भी महिलाएं फर्श पर ही सोती हैं. किसी भी तरह के बेड व चारपाई पर इन्हें सोने की इजाजत नहीं है.
गांव में सभी लोग आज भी इस खौफ के साये में अपना जीवन बसर कर रहे हैं. हमेशा गांव वालों को डर बना रहता है कि परंपरा तोड़ने से गांव में अनहोनी हो सकती है. हालांकि कई समाजिक कार्यकर्ताओं ने यहां के लोगों को जाकर समझाया कि ये सब अधंविश्वास की बाते है लेकिन गांव वालों ने किसी की एक ना सुनी और इस परंपरा को सदियों से निभाते चले आ रहे है.
बहरहाल, सदबाहरा गांव अपने इस अजब परंपरा के कारण चर्चा में हैं. इनके इस अजीबो-गरीब परम्परा को तोड़ने की हिम्मत किसी में भी नहीं. आज के दौर में भी यहां की महिलाएं देवी के खौफ से न तो सजतीं हैं न ही लकड़ी के बने वस्तुओं पर बैठती हैं.