धमतरी: 10 साल पहले सुकमा की कोंटा तहसील के ताड़मेटला में जब नक्सलियों ने खूनी खेल खेला था, तब सियाराम अपना फर्ज निभाते-निभाते शहीद हो गए थे. पूर्णिमा तब से सिर्फ नाम में ही पूरी हैं, सियाराम के बिना उनका जीवन अधूरा है. वो चुपचाप कहती हैं कि जिंदगी बीत रही है. हमारा गुजारा हो रहा है. बच्चे पढ़ रहे हैं, लेकिन वो होते तो हाल कुछ और होता.
पूर्णिमा बताती हैं कि 5 अप्रैल को जब सियाराम 150 जवानों के साथ गश्त पर निकल रहे थे, तब उनकी आखिरी बार बात हुई थी. इसके बाद उनका फोन ऐसे बंद हुआ कि फिर कभी पूर्णिमा, सियाराम की आवाज नहीं सुन पाईं. दूसरे दिन खबर मिली की वे शहीद हो गए हैं. सरकार ने सियाराम के बड़े बेटे को बाल आरक्षक की नौकरी दी है. छोटा बेटा कॉलेज में है और बेटी मुस्कान पढ़ाई कर रही है और उनकी मां ने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया है.
1995 में हुई थी ज्वॉइनिंग
सियाराम ने जब सोचा कि कुछ करेंगे, तब से ही वे पुलिस विभाग उन्हें आकर्षित करता रहा. 1995 में उनका सपना सच हुआ और आरक्षक के पद पर किस्टाराम में तैनाती मिली. इसके बाद से वह परिवार से दूर रहकर भी बीहड़ नक्सल इलाके में अपनी सेवाएं देते रहे. बीजापुर, तोंगपाल ड्यूटी के दौरान उन्हें आरक्षक से प्रधान आरक्षक के पद पर पदोन्नति मिली. इसके बाद ड्यूटी के लिए दंतेवाड़ा के चिंतलनार में पोस्टिंग हुई.