धमतरी: भारत देश को आजादी 1947 में मिली, इस आजादी के पहले कई सालों तक लाखों लोगों ने अंग्रेजों से लोहा लिया और देश प्रेम में सर्वस्व अर्पण कर दिया. आजादी की इस लड़ाई में धमतरी जिले के नगरी सिहावा क्षेत्र के सैकड़ों वीर सेनानियों ने भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अपना सर्वस्व झोंक दिया. नगरी क्षेत्र में ग्राम उमरगांव से सबसे ज्यादा संख्या में लोगों ने आजादी के इस आंदोलन में भाग लेकर अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी. इसी वजह से उमरगांव को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का गांव कहा जाता है. इस गांव की मिट्टी में आजादी के आंदोलन की खुशबू आज भी महकती है लेकिन इस मिट्टी में रहने वाले इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजन शासन की उपेक्षा झेल रहे हैं.
जहां से शुरू हुआ था जंगल सत्याग्रह, जहां है वीरों की निशानियां, उसे सब भुला बैठे - सिहावा
धमतरी के सिहावा क्षेत्र के ग्रामीण शासन की उपेक्षा से नाराज हैं ग्रामीणों का कहना है कि उनके पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया लेकिन सरकार ने उन्हें कभी याद नहीं किया.
झंडाभर्री से शरू हुआ आंदोलन और उमरगांव में जल पड़ी मशाल
रायपुर में 7 फरवरी 1921 को सत्याग्रह आश्रम की स्थापना होते ही छत्तीसगढ़ के युवाओं में एक नया जोश आया और असहयोग आंदोलन में इस क्षेत्र के विश्वम्भर सिंह पटेल, हरखराम, परदेशी राम, रामदुलारे, शोभाराम व श्यामलाल सोम शमिल हुए. इनकी प्रेरणा से 21 जनवरी 1922 को उमरगांव से 5 किमी दूर स्थित झंडाभर्री नामक स्थान से जंगल सत्याग्रह आंदोलन की आवाज बुलंद हुई, जिसे कुचलने के लिए अंग्रेजो ने अपनी सारी ताकत झोंक दी. उमरगांव के 29 लोगों को बेंत मारने की सजा व 15 लोगों को जेल में डाल दिया गया. इसके बाद भी इन सेनानियों के कदम नहीं रुके और आखिरकार इन्होंने आजादी हासिल की.
तेंदूपत्ता तोड़ने का काम शुरू होने से खिले ग्रामीणों के चेहरे
उपेक्षित महसूस कर रहे हैं सेनानियों के परिजन
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजन वर्तमान में उमरगांव में अपने पूर्वजों की शौर्य गाथा को अपने सीने से लगाए गुमनामी का जीवन गुजार रहे हैं. वीर सेनानियों के परिजनों का कहना है कि सेनानियों के परिवार को शासन ने उपेक्षित किया है ना तो इन्हें पेंशन मिलती है और ना ही शासन की तरफ से कोई लाभ दिया जा रहा है. पिछले चार सालों से यहां के हाईस्कूल का नाम स्वर्गीय पंचम सिंह के नाम पर करने की मांग की जा रही है लेकिन अभी तक ये प्रस्ताव मूर्त रूप नहीं ले सका है. सांकरा में परिजनों ने 20 डिसमिल जमीन अस्पताल के लिए दान में दी थी कि लेकिन भवन बनने के बाद अस्पताल दूसरे जगह चला गया और नामकरण को लोगों ने भुला दिया. ग्रामीणों ने झंडाभर्री को ऐतिहासिक स्थल का दर्जा देने की मांग की है.अब देखना होगा कि कब शासन-प्रशासन इन वीरे सेनानियों के बलिदान को याद करता है.