दंतेवाड़ा: तेरहवीं शताब्दी में बना बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के मंदिर (Maa Danteshwari Temple) के पीछे शंखिनी-डंकिनी नदी (shankhini-dankini river) का संगम तट है. ये नदी क्षेत्रवासियों के लिए जीवन दायिनी भी है और आस्था का प्रतीक भी. इन दोनों नदियों को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. जानकारों का मानना है कि मां दंतेश्वरी देवी वारंगल राज्य से आईं थीं. जिनके पीछे-पीछे महादेव और भैरवनाथ भी आए थे. आईए जानते हैं कि इन दो नदियों का ये नाम पड़ने के पीछे की क्या मान्यता है.
दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी विजेंद्र जिया ने बताया कि उनका परिवार पीढ़ियों से माई दंतेश्वरी की सेवा करता आ रहा है. उन्होंने बताया कि मां दंतेश्वरी अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूप में विराजमान हैं. दंतेवाड़ा की बात करें तो यहां मां दंतेश्वरी चौसठ योगिनी के साथ विराजती हैं. उनमें से जो दो योगिनी देवियां हैं वे शाखिनी और डाकिनी के नाम से प्रचलित हैं. जो मंदिर के पीछे नदी के रूप में प्रवाहित होती हैं.
इस वजह से नदी का ये नाम पड़ा
एक दंतकथा के मुताबिक मंदिर के पुजारी हरेंद्र नाथ जिया बाबा को शाखिनी-डाकिनी योगिनी देवी ने एक दिन सपने में दर्शन दिया. देवियों ने पुजारी को दोनों नदियों में पूजा अर्चना करना शुरू करने को कहा. देवियों ने पुजारी को कहा कि पूजा-अर्चना के बाद मछुआरे से नदी में आखेट (शिकार) कराएं. वहां आपको शंख और बाजे के रूप में हमारे दर्शन होंगे. सुबह उठकर हरेंद्र नाथ जिया ने दंतेश्वरी मंदिर संगम तट पर शंखिनी-डंकिनी नदी में मछुआरे से शिकार कराया. शिकार में जिया बाबा को शंखिनी नदी से शंख (conch) और डंकिनी नदी से बाजा मिला. जिसे पुजारी ने मां दंतेश्वरी मंदिर में लाकर विधि विधान पूजा-अर्चना कर विराजमान किया. इसी वजह से मां दंतेश्वरी मंदिर के पीछे संगम तट का नाम शंखिनी-डंकिनी नदी पड़ा. ये शंख और बाजा आज भी मंदिर में पूजे जाते हैं.