सरगुजा: सरगुजा की मां महामाया की महिमा दूर-दूर तक फैली है. आज हम आपको मां की वो अनसुनी कहानी सुनाने जा रहे हैं, जो शायद आपने सुनी नहीं होगी. आप ये जानकार हैरान होंगे कि माता महामाया को पहले बड़ी समलाया कहा जाता था.
महामाया और समलाया की कहानी जब बड़ी समलाया के बगल में विराजी छोटी समलाया को अलग मंदिर में स्थापित किया गया तब से बड़ी समलाया को महामाया कहा जाने लगा और छोटी समलाया, मां समलाया के रूप में ख्याति प्राप्त हैं. माहामाया के बगल में विंध्याचल से मूर्ती लाकर मां विंध्यवासिनी को स्थापित किया गया है.
मंत्री टी एस सिंह देव की हैं कुल देवी
अंबिकापुर के नवागढ़ में विराजी महामाया यहां के राजपरिवार की कुल देवी हैं. यानी कि वर्तमान में छत्तीसगढ़ शासन में स्वास्थ्य एवं पंचायत मंत्री जिन्हें सियासत काल के मुताबिक सरगुजा का महाराज होने का गौरव प्राप्त है. वही मंदिर की विशेष पूजा करते हैं और उनके परिवार के लोग ही माहामाया और समलाया के गर्भ गृह में प्रवेश कर सकते हैं.
मान्यता है कि यह मूर्ति बहुत पुरानी है. सरगुजा राजपरिवार के जानकारों के अनुसार रियासत काल से राजा इन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते आ रहे हैं. बताया जाता है कि सरगुजा भगवान राम के आगमन समय से ही ऋषि मुनियों की भूमि रही है, जिस कारण यहां कई प्राचीन मूर्तियां यंत्र-तंत्र रखी हुई थी. जब सिंह देव घराने ने सरगुजा में हुकूमत की तब इन मूर्तियों को संग्रहित किया गया, बताया जाता है कि ये ओडिशा के संभलपुर में विराजी समलाया और डोंगरगढ़ में भी सरगुजा की मूर्तियां हैं.
आस्था ऐसी कि रो पड़ते हैं भक्त
इस मंदिर के प्रति और यहां विराजी मां के प्रति ऐसी आस्था है कि लोग उनकी एक झलक पाकर भावुक हो रोने लगते हैं. इस खबर के संबंध में जब हम मंदिर पहुंचे और वहां श्रद्धालुओं से मां की महिमा के विषय में जानने का प्रयास किया तो एक महिला मां से मिली मन्नत में अपनी बेटी के बारे बताते बताते भावुक हो उठीं और रोने लगी, सरला राय नामक महिला ने बताया की 7 साल तक उन्हें संतान नहीं थी, लेकिन मां माहामाया की कृपा से उनकी बेटी हुई और इस वजह से उनकीं अटूट आस्था माहामाया में है.
लोग बताते हैं आस्था की कहानी
वहीं सरगुजा राजघराने और माहामाया मंदिर के जानकार गोविंद शर्मा बताते हैं कि लगभग 22 वर्ष पहले माहामाया मंदिर उन्हें एक ऐसा परिवार मिला जो अमेरिका से अंबिकापुर मन्नत पूरी होने की वजह से आया था. उस परिवार से जब उन्होंने पूछा तो उन्होंने बताया की बहोत साल पहले वो अम्बिकापुर में रहते थे, और अब अमेरिका में हैं लेकिन सात समंदर पार जाने के बाद भी इस परिवार की आस्था कम ना हुई औऱ उनकी मनोकामना पूर्ण होने पर वो परिवार इतनी दूर से यहां चला आया।
छिन्नमस्तिका हैं माता
वहीं सरगुजा की माहामाया का सबसे अद्भुत और विचित्र वर्णन यह है की यहां मंदिर में स्थापित मूर्ति छिन्नमस्तिका है, अर्थात मूर्ती का सर नहीं है, धड़ विराजमान है और उसी की पूजा होती है, हर वर्ष नवरात्र में यहां राजपरिवार के कुम्हारों के द्वारा माता का सिर मिट्टी से बनाया जाता है.
'सरगुजा में धड़ है तेरा हृदय हमने पाया'
मां के जस गीतों से सरगुजा में से एक गीत प्रसिद्ध हैं, जिसे सुमिरते वक्त सरगुजा के लोग गर्व से गाते हैं की "सरगुजा में धड़ है तेरा हृदय हमने पाया, मुंड रतनपुर में मां सोहे कैसी तेरी माया" मान्यताओं पर बना यह भजन सरगुजा में विराजी मां माहामाया मंदिर की पूरी महिमा का बखान करते हुए लिखा गया है.
ये है कहानी
दरअसल सरगुजा रियासत पर मराठाओं ने कई बार हमला किया, लेकिन वो हर बार हार का सामना करते थे, शायद उनकी नजर महामाया की महिमा पर थी. जानकार बताते हैं कि एक बार मराठा मूर्ती ले जाने का प्रयास कर रहे थे लेकिन वो मूर्ति उठा नहीं पाए और माता की मूर्ती का सिर उनके साथ चला गया और वह सिर बिलासपुर के पास रतनपुर में मराठाओं ने रख दिया. तभी से रतनपुर की महामाया की भी महिमा विख्यात है, माना जाता है की रतनपुर और अंबिकापुर माहामाया का दर्शन किए बिना दर्शन पूरा नहीं होता है.