सरगुजा :छत्तीसगढ़ के छोटे तिब्बत का हाल जानने ETV भारत पहुंचा मैनपाट. यहां पर स्थानीय आबादी के अलावा अलग से संगठित रूप से बसी है तिब्बती आबादी. देखने से ही इनके गांव, इनके घर इनकी संस्कृति भिन्न दिखाई पड़ती है. पूजा पद्धति हो या फिर पहनावा या रहन सहन सब कुछ आज भी तिब्बती संस्कृति से जुड़ा हुआ है. हमने कुछ तिब्बती लोगों से बातचीत की और यह जाना कि इतने वर्षों में तिब्बतियों के जीवन में कितना बदलाव आया है. उनकी जीवन शैली क्या है?
संस्कृति को प्रिजर्व रखने रहते हैं एक साथ :मैनपाट में रहने वाले तिब्बती धुन्दुप बताते हैं " 1962 में जब हम लोगों को यहां पर बसाया गया था तो दलाई लामा जी के मार्गदर्शन में उनके पीछे पीछे हम लोग इंडिया में आये थे. उसके बाद इंडिया में भिन्न भिन्न जगह में बसाया गया और हम लोगों को मैनपाट में बसने का मौका मिला. तो हम लोगों का जो कल्चर है उसको भिन्न इसलिए किया जाता है, क्योंकि दलाई लामा जी का मानना था कि हमारे कल्चर को प्रिजर्व करें, हमारे लैंग्वेज को प्रिजर्व करें उसके लिये अलग से सेटलमेंट बनाया गया. इसलिए यहां के लोगों से हम लोग थोड़ा सा भिन्न रहते हैं"
पूर्वजों ने किया नई फसलों पर प्रयोग :धुन्दुप कहते हैं " हमारा एडमिनिस्ट्रेशन है. सब कुछ एक एडमिनिस्ट्रेशन के हिसाब से है. इसलिये हमारा कल्चर प्रिजर्व है. 1962 में जब यहां आए थे तो उस समय तो बहुत बड़ा जंगल था. बताते हैं कि अगर 1 किलोमीटर जंगल के अंदर कोई घुस जाए तो वापस आना मुश्किल था. उस समय एमपी की सरकार थी और सेंट्रल गवर्मेंट ने हमको यहां बसाया था. उस समय यहां खेती के लिये भी बहोत कुछ नहीं था. सिर्फ बाजरा और मक्का वगैरह उगाते थे. फिर धीरे धीरे हमारे ग्रैंड फादर लोग जो हैं वो बाहर जाते थे. तिब्बत और तिब्बत के बॉर्डर में जो फसल उगती हैं उसका उन लोगों ने यहां पर ट्रॉयल किया. जैसे टॉउ, माड़िया, आलू यहां उगाना शुरू किया था. तब से आज 40-50 साल हम लोग खेती कर रहे हैं"
खेती और स्वेटर बुनकर चलती है आजीविका :धुन्दुप बताते हैं " उस समय हम लोग खेती पर निर्भर थे और इसी से जीवन यापन करते थे. अब मेजर जो हमारा लाइवलीहुड है. वो खेती बाड़ी और स्वेटर सेलिंग है, कुछ लोग फौज में भी हैं, कुछ लोग सरकारी नौकरी में हैं. कुछ प्राइवेट जॉब तो कुछ व्यापार भी कर रहे हैं. लेकिन जो लार्ज कम्युनिटी है. वो खेती और स्वेटर सेलिंग पर निर्भर है.
आधुनिक दौर में सक्षम हुए तिब्बती :दूसरे तिब्बती लाकपा कहते हैं "पहले की तुलना में बहुत सुधार हुआ है. पहले सिर्फ खेती और पशुपालन के ऊपर ही निर्भर हुआ करता था. बीच में स्वेटर आ गया, आज के समय मे कई काम जैसे फार्म हाउस खोलना, होटल बनाना, किराना स्टोर खोलना हर तरह का काम कर रहे हैं. इस एरिया में तो ज्यादातर तिब्बतियों का ही होटल, गेस्ट रूम, रिसोर्ट वगैरह है. आज ये है कि बहोत अच्छा स्टेटस है. हम लोगों को इकट्ठा इसलिये बसाया गया है क्योंकि जो संस्कृति है, बोल चाल है वो बरकरार रहे. कहीं बीच में मिक्स ना हो जाये इसलिये एक साथ बसाया गया है"
Little Tibet of Chhattisgarh तिब्बतियों की शरणस्थली मैनपाट
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में मैनपाट का पठार है. घनघोर जंगलों और नदियों से घिरा यह क्षेत्र पर्यटकों को खूब भाता है. इस स्थान की एक और विशेषता है. मैनपाट में छोटा तिब्बत बसता है. 1959 में चीन तिब्बत विवाद के कारण भारत सरकार ने तिब्बतियों को भारत में बसाया. 1962 में करीब 3 हजार तिब्बतियों को मैनपाट में बसाया गया था. आज करीब 450 से अधिक तिब्बती परिवार मैनपाट के अलग अलग तिब्बती कैम्पों में रहते हैं.
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सजावटी झंडे नहीं : लाकपा बताते हैं "पहले से जो भी हमारा ट्रेडिशन है वो अच्छा है अब तक बरकरार है. तिब्बती ट्रेडिशन में अलग अलग तरह के लिखावट वाले झंडों के सवाल पर उन्होंने बताया ''ये टूरिस्ट के देखने के लिये तो बहुत सुंदर या एक फैशन टाइप का दिखता है. मगर हमारे इसमें धर्म की बात होती है. ये अलग अलग टाइप का होता है कोई छोटा होगा, कोई लंबा होगा, कोई सीधा भी लगाया होगा. इसमें हर अलग-अलग झंडों में मंत्र लिखे होते हैं. किसी में बुरी नजर से बचाने के लिए कुछ लिखा होगा, किसी मे पूरे वर्ल्ड में पीस के लिये मंत्र होते हैं. उसको लिखा होगा. इसका अर्थ यही है कि हम मुंह से बोलें उसको जपें या इस तरह हवा से उड़ रहे मंत्रों को हम यही समझते है कि ये पढ़ रहा है"