सरगुजा:सरल-सहज लोगों से भरा हुआ, लोक संस्कृति और प्रकृति का अनुपम केंद्र छत्तीसगढ़ "लाल आतंक" के नाम पर भयाक्रांत भी पैदा करता है. इस प्रदेश की नैसर्गिक सुंदरता यहां रहने वाले या इस प्रदेश को करीब से जानने वाले ही समझते हैं. वरना दूर बैठे अन्य प्रांतों या देशों के लोग इसे नक्सलवाद के नाम से जानते हैं. आज भी दक्षिण छत्तीसगढ़ का हिस्सा बस्तर संभाग नक्सलवाद की गिरफ्त में है, ठीक इसी तरह कभी सूबे का उत्तरी हिस्सा यानी की सरगुजा संभाग भी घोर नक्सल प्रभावित हुआ करता था, लेकिन अब उत्तर छत्तीसगढ़ में अमन बहाल है. सरगुजा में अब लाल आतंक से कोई नहीं डरता, लेकिन अब भी बलरामपुर जिले के सीमावर्ती इलाके में नक्सली गतिविधियां होती रहती हैं. जिले की सामरी विधानसभा का सबाग, चुनचुना, पुंदाग ये कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां अक्सर नक्सल घटनाएं होती हैं.
वहीं बलरामपुर पुलिस ने 10 मार्च 2021 को पूर्व नक्सली जोनल कमांडर प्रवीण खेस को भी गिरफ्तार किया था. 26 मई को बरियों के पास एक ढाबे से अनिल यादव व उनके साथी होटल संचालक रविंद्र शर्मा को गिरफ्तार किया. इसी के साथ बलरामपुर जिले में ही 21 दिसंबर को पुलिस ने 7 पीस आईईडी बरामद किया था. नए साल में किसी बड़ी घटना को अंजाम देने की साजिश नक्सलियों ने की थी, लेकिन पुलिस व सीआरपीएफ के ज्वाइंट ऑपरेशन में 3 दिन की सर्चिंग में आईईडी बरामद कर नक्सलियों के मंसूबों पर पानी फेर दिया था.
सरगुजा में नक्सलवाद की शुरुआत और वर्तमान में इसकी स्थिति पर हमने चर्चा की. नक्सल मामलों के जानकार सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह सिसोदिया से...इस बातचीत में एक अहम बात सामने आई कि आज सरगुजा में नक्सली बैकफुट में हैं तो उसका कारण नक्सलियों के पास अपने पैर जमाने के लिये मुद्दे नही हैं.
यह भी पढ़ें:suspended IPS GP Singh on police remand: जीपी सिंह को 18 जनवरी तक पुलिस रिमांड, पेशी के दौरान बोले जीपी मुझे फंसाया गया
सवाल: सरगुजा में नक्सल वाद कैसे पनपा, वो समय कितना भयावह था और किस तरह की गतिविधियां यहां होती थीं ?
जवाब: सरगुजा में नक्सलवाद का दो दौर रहा. एक दौर 1960 का था, उस समय यहां चारू मजूमदार आते थे. बतौली के पास सेदम गांव में नवरंग अग्रवाल थे जो कम्युनिस्ट विचारधारा के थे उनके पास आते थे. उस समय इनका जो मेंडेट था वो था जमीदार मुक्त. उस समय ये जमीदारों को टारगेट करते थे, भू सुधार इनका मुख्य एजेंडा हुआ करता था तो उस समय जब ये लोग आगे आकर लाठी डंडे से लैस रहते थे. उस समय बंदूक का चलन था ही नहीं, चार लोग लाठी डंडा लेकर जमींदार को घेरते थे और जमींदार को बोलते थे की इनको जमीन दो और जमीन का सामान वितरण हो. इनकी ये प्रमुख मांग रहती थी. इस मांग के कारण ये लोग काफी लोकप्रिय हुए, क्योंकि एक गांव में एक जमींदार होता था. बाकी सब भूमिहीन हो गये. 1970 तक चला तब तक पश्चिम बंगाल और कई राज्यों ने इस पर थोड़ा काबू पाया. फिर भूमि सुधार आया. आचार्य विनोबा भावे आये भू दान आंदोलन चला तो इस तरह से ये चीज नीचे गई.
फिर दूसरा दौर हमने देखा 1998 में जब हम लोग मध्यप्रदेश का हिस्सा थे. तब झारखंड सीमा से बलरामपुर जिले से इन लोगों का प्रवेश हुआ. उस समय 1998 से 2008 तक बहुत मजबूती से थे, पुराने वाले ग्रुप में वो लोग नक्सल बाड़ी से आये थे तो नक्सली कहलाये. इस बार ये लोग थोड़ा अलग तैयारी से आए थे. 20 साल का अंतराल था. इतने दिनों में मुद्दे भी बदलते हैं, टारगेट भी बदलते हैं, शोषक भी बदलते हैं शोषित भी बदलते हैं, नए सिनेरियो में जब ये लोग आए तो एमसीसी, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, पीपुल्स ओर ग्रुप, लुरिक्स सेना, टीपीसी, अली सेना इस तरह के 5-7 ग्रुप से थे.