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अनूठी मिसाल: हिंदू न मुसलमान, रायपुर की बेटी के लिए हर कोई है सिर्फ एक इंसान

"शमां जब जलती है इंसानियत (humanity) की तो उसकी रोशनी में मजहबी भेद नहीं होता, यहां चलती भी खाली इंसानियत की ही, किसी से कोई बैर नहीं होता,"...इस तरह के चंद शब्दों को राजधानी रायपुर के मठपुरैना में रहने वाली डॉ. निम्मी चौबे ने चरितार्थ किया है. वह इन दिनों अपने सामाजिक दायित्व (Social Obligation) के तहत सबसे बड़ा बोझ लावारिस शवों के अंत्तेष्टि के रूप में उठा रही हैं. आज वह बताती हैं कि यह धर्म समाज में अच्छा नागरिक बनने की शिक्षा (Citizenship Education) से प्रेरित होकर निभा रही हैं.

Unique example of a daughter in Raipur
रायपुर में एक बेटी की अनूठी मिसाल

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Published : Oct 7, 2021, 6:54 PM IST

Updated : Oct 7, 2021, 7:18 PM IST

रायपुरःआज से शारदीय नवरात्रि (Sharadiya Navratri) की शुरुआत हो चुकी है. देश भर में लोग देवी मां की आराधना में जुट गए हैं. नवरात्रि के नौ दिनों तक लोग मां दुर्गा के नौ रूपों की भक्ति में लीन होंगे. शारदीय नवरात्र के अवसर पर ईटीवी भारत आपको एक ऐसी 'नारी शक्ति' (Woman Power) से रूबरू कराने जा रहा है, जो समाज के मिथक भ्रांतियों को तोड़ रही हैं. मानवता की मिसाल (Example Of Humanity) पेश कर रही यह बेटी लावारिश शवों को मोक्ष दिलाने में लगी है. जी हां, हम बात कर रहे हैं राजधानी रायपुर के मठपुरैना में रहने वाली डॉ. निम्मी चौबे के बाबत. निम्मी अपने खर्च पर लावारिश शवों का कफन-दफन का बीड़ा उठाए हुए हैं. ऐसा नहीं है कि उनका सामाजिक कर्तव्य सिर्फ कफन-दफन के खर्च तक सीमित है, वह शवों को कब्रिस्तान पहुंचा कर विधिवत अंत्येष्टि भी करती हैं.

रायपुर में एक बेटी की अनूठी मिसाल

सवाल: लावारिस शवों के अंतिम संस्कार कराने की प्रेरणा कैसे मिले? इसकी शुरुआत कब की?
जवाब: मेरे मम्मी पापा दोनों नहीं हैं. दुर्भाग्यवश जब मैं 11वीं कक्षा की छात्रा थी, उस समय मेरे पिताजी को ब्रेन हेमरेज हो गया और 2014-15 में मेरी मां डायबिटीज पेशेंट (diabetic patient) थीं, तो उनकी भी डेथ हो गई. उस समय मुझे हमेशा फील होता था कि मैं अपने मम्मी-पापा (Mom Dad) के लिए कुछ नहीं कर पाई, जो मैं करना चाहती थी. फिर मैंने सोचा कि एक बेटी के रूप में समाज के लिए कोई ऐसा काम करूं, जो जीवन-पर्यंत (For Life) याद रखी जाए. मुझे लगा कि जरूरतमंद की मदद होनी चाहिए. तो इस दुनिया में सबसे ज्यादा जरूरत कौन है? मन से लगा कि अज्ञात शव (Unidentified Body) ही हैं. क्योंकि उनके अपनों को भी नहीं पता होता कि कोई अपना जा चुका है. ऐसे में पुलिस 3 दिन तक के उसके परिजन की खोज करती है. अगर ना मिले तो अंततः उसके शव को अज्ञात या लावारिश (Unclaimed) घोषित करती है. फिर उनका अंतिम संस्कार किया जाता है. ऐसे में मुझे लगा कि इस अज्ञात या लावारिश शव के बदले उनकी चाहे मैं बेटी बन कर या फिर बहन बन कर ससम्मान विधिवत अंतिम संस्कार करूं तो काफी सकून मिलेगा.

सवाल: अभी तक कितने शवों की करवा चुकी हैं अंत्येष्टि?

जवाबः मैंने यह प्रयोग एक प्रयास के रूप में किया. समाज में बहुत ही ज्यादा चर्चित विषय रहा. अब तक कि मैंने 90 से अधिक लावारिश शवों का अंतिम संस्कार पूरे सम्मान से खुद के खर्चे से कर चुकी हूं. यह करने पर मुझे अपने आप में बहुत ही ज्यादा शांति, सुख और अपने आप में गौरव महसूस करती हूं. मैं उन तमाम बेटियों को कहना चाहूंगी कि आप यदि स्व-निर्भर हैं, आप में आत्मविश्वास है, तो ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो आप नहीं कर सकते हैं. आपको केवल अपने परिवार का साथ होना चाहिए. अपने खुद पर आत्मविश्वास होना चाहिए (Must Be Confident).
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सवाल: लावारिस शवों की सूचना आपको कैसे मिलती है और तैयारी कैसे करती हैं?
जवाब: सर्वप्रथम मैंने अपना एक फाउंडेशन बनाया. जिसका नाम बुनियाद बेटियां अनमोल फाउंडेशन (Anmol Foundation) रखा. फाउंडेशन के नाम पर कुछ बैनर पोस्टर बनवाए. फिर आसपास के तमाम थाना क्षेत्रों में जा कर वहां के थाना प्रभारी (Police Station In-Charge) को अपना कांटेक्ट नंबर दर्ज दिया. इसके साथ ही श्मशान घाट में भी लावारिश शव यदि आएं, तो सूचना दी जाए. जिसके लिए वहां भी अपना संपर्क नंबर छोड़ा गया. उसके बाद से हमें आसपास के थाना क्षेत्रों से फोन आने लगा. इसमें हमें एक दिन का वक्त भी मिलता है. हम अपनी पूरी तैयारी करते हैं. वहीं, जब गड्ढे की खुदाई पूरी हो जाती है तो दूसरे दिन 11 बजे के आसपास हमारी पूरी टीम एक साथ वहां जाती है. पुलिस कर्मी भी साथ होते हैं. उसके बाद सम्मान के साथ (With Due Respect) आगे की प्रक्रिया पूरी की जाती है.

सवाल: आपको किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
जवाब: पहले अगर मेरे मन में ख्याल आया. एक दिन मुझे खुद भी थोड़ा डर लगने लगा कि अक्सर अज्ञात शव सीधे-सादे लोगों के नहीं होते. मतलब ट्रेन से कटे हुए होते हैं, कुछ तो पाइजन लिए हुए भी होते हैं या कहीं पर लावारिश ढंग से मिले होते हैं. यह सोच कर शुरुआत में भयभीत होने लगी थी कि मैं कर पाऊंगी या नहीं. लेकिन मन में आत्मविश्वास था कि करना चाहिए. कर के देखना चाहिए और इससे बेहतर समाज हित के लिए कोई कार्य नहीं हो सकता. उसके बाद 19 जुलाई 2018 को पहला लावारिश शव का अंतिम संस्कार करवाया. उस रात मुझे बहुत सुकून मिला. लगा कि जब तक मैं हूं, सक्षम हूं. सबल हूं. मुझमें समाज के लिए कुछ करने की क्षमता है. यह प्रेरणा (Inspiration) मुझे अपनी मम्मी-पापा से ही मिली कि जरूरतमंद लोगों की मदद करनी चाहिए, तो बस उसी को आगे बढ़ाने की कोशिश है.

Last Updated : Oct 7, 2021, 7:18 PM IST

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