सूरजपुर: कई ऐसे परंपरागत प्राचीन और विलुप्त हो रहे वाद्य यंत्र आज भी सूरजपुर में देखे जा सकते हैं. ये ऐसे वाद्य यंत्र हैं जो प्राचीन काल में भगवान, इंसान के साथ ही जानवरों को भी रिझाने का काम करते थे. ऐसे ही अति प्राचीन और विलुप्त होते वाद्य यंत्रों को संजोने की पहल यहां के एक शिक्षक कर रहे हैं. कलेक्टर भी टीचर के इस काम की सराहना कर रहे हैं और इन्हें कला केंद्र में रखने की बात कह रहे हैं. ताकि आने वाली पीढ़ी इन वाद्य यंत्रों को देख सके.
सूरजपुर में सैकड़ों साल पुराने वाद्य यंत्र सूरजपुर के आदिवासी परिवारों के पास वाद्य यंत्र
सूरजपुर जिले के प्रतापपुर के एक शिक्षक के प्रयास से विलुप्त हो चुके वाद्ययंत्रों को बचाया जा रहा है. जिले के प्रतापपुर ब्लॉक में अलग-अलग आदिवासी परिवारों के पास करीब 70 से अधिक ऐसे वाद्य यंत्र हैं जो सैकड़ों साल पहले प्रचलन में थे. प्राचीन वाद्य यंत्रों को सहेजने का काम करने वाले शिक्षक अजय चतुर्वेदी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने अलग-अलग गांव के लोगों से संपर्क किया और कबाड़ में पडे़ वाद्य यंत्रों की साफ-सफाई और मरम्मत करवाकर ग्रामीणों के घर में सुरक्षित रखवाया.
लगभग 200 साल पुराने वाद्य यंत्रों का कलेक्शन
अजय चतुर्वेदी की बदौलत आज जिले के कई गांवों के आदिवासी परिवारों में रखे करीब 70 प्राचीन वाद्य यंत्र की धुन एक बार फिर गांवों में सुनाई देने लगी है. गांव के युवा भी अब इन वाद्य यत्रों को बजाना सीख रहे हैं. चतुर्वेदी ने बताया कि ये प्राचीन यंत्र आदिवासी अंचल में ही देखने को मिलेंगे. इन अलग-अलग वाद्य यंत्रों का इतिहास 100 से 200 साल पुराना है. खास बात ये है कि इनमें से कुछ वाद्य यंत्र तो ऐसे हैं जिनकी आवाज सुनकर शेर भी रिझकर बाजे के पास पहुंच जाते थे. कुछ वाद्य यंत्र ऐसे हैं जिन्हें पेट से बजाया जाता था'.
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सूरजपुर में कला केंद्र Art Center in Surajpur
चतुर्वेदी का कहना है कि इन वाद्य यंत्रों को बचाने के लिए संग्रहालय की जरूरत है. उन्होंने प्रशासन से अपील की है कि इतने सारे वाद्य यंत्रों को किसी म्यूजियम में ही रखा जा सकता है. जिससे लगातार खोती जा रही आदिवासी संस्कृति को संजो कर रखा जा सकता है.
सूरजपुर में सैकड़ों साल पुराने वाद्य यंत्र
वाद्य यंत्र बजाने वाला कलाकार हेमंत कुमार आयाम बताते हैं कि ' ये सभी वाद्य यंत्र करीब 200 साल पुराने यंत्र है. पहले क्षेत्र में काफी घना जंगल हुआ करता था. ऐसे समय में जंगली जानवरों को भगाने के लिए इन वाद्य यंत्रों का उपयोग होता था.
आइए हम आपको बताते हैं कि अति प्राचीन वे कौन-कौन से वाद्य यंत्र थे और उसका उपयोग किसलिए किया जाता था.
भरथरी बाजा- इस प्राचीन वाद्य यंत्र का प्रयोग प्राय: भिक्षा मांगने के लिए किया जाता था.
डम्फा-चंदन की लकड़ी से बना ये एक प्राचीन वाद्य यंत्र है. जिसमें बंदर की छाल लगाई जाती थी.
ढोंक- पेट और हाथ के सहारे बजाया जाता था. जो लगभग अब विलुप्त होने की कगार में पहुंच चुका है. यह वाद्य यंत्र जानवरों को भगाने के लिए किया जाता था.
महुअर- बांसुरी की तरह दिखने वाला प्राचीन वाद्य यंत्र जिसके बीचों बीच बने छिद्र में हवा फूंक कर बजाया जाता है.
झुनका या शिकारी बाजा- लोहे की रिंग में लोह के कई छल्ले लगाकर बनाया जाता था. जिसका उपयोग शिकार में किसी जंगली जानवर को रिझाने के लिए किया जाता था.
मृदंग- छत्तीसगढ़ समेत मध्य प्रदेश उत्तप्रदेश, बिहार, झारखंड में शराबबंदी के लिए क्रांति लाने वाली पद्मश्री राजमोहनी देवी द्वारा बजाए जाने वाला वाद्य यंत्र.
किंदरा बाजा- किंदरा का अर्थ होता है. घूमघूम कर. मतलब किंदरा बाजा का उपयोग पुराने समय में भिक्षा मांगने के लिए किया जाता था. साथ ही देवी भजन गाते समय इसे बजाया जाता था.
रौनी-सबसे दुर्लभ प्राचीन और अब विलुप्त हो चुके इस वाद्य यंत्र में गोह की छाल लगाई जाती थी. साथ ही इसमें तार के रूप में मवेशियों के नसों का इस्तेमाल किया जाता था.
मांदर- ये वाद्य यंत्र आज भी प्रचलन में हैं. इसका इस्तेमाल आदिवासियों के परंपरागत नृत्य करमा के दौरान किया जाता है. आदिवासी इलाके में किसी शुभ काम में इसको बजाए जाने का प्रचलन है.
इस विलुप्त होते वाद्य यंत्रों पर जिले के कलेक्टर गौरव कुमार सिंह की नजर पड़ी तो उन्होंने फिलहाल उपलब्ध सभी वाद्य यंत्रों को धरोहर के रूप में कला केंद्र में रखने का फैसला किया है. इसके पीछे उनकी मंशा है कि विलुप्त होते वाद्य यंत्रों को संरक्षित कर आगे की पीढ़ियों को इसकी जानकारी देना है. गौरव कुमार का कहना है कि कला केंद्र में ऐसे वाद्य यंत्रों को रखने से जहां आज के बच्चे और युवा हमारी संस्कृति के प्रति आकर्षित होंगे वहीं दूसरी ओर अन्य लोगों को इसकी जानकारी होने पर वे उनके पास मौजूद विलुप्त वाद्य यंत्रों को वे कलाकेंद्र में संरक्षिक कर सकेंगे.