रायपुरःछत्तीसगढ़ में दीपावली पर्व को सुरहुत्ति तिहार के नाम से जाना जाता है लेकिन धीरे-धीरे यह नाम अब विलुप्त होते जा रहा है. अब लोग इसे दीपावली पर्व या त्योहार (Diwali festival) के नाम से जानते हैं. आज के दिन ग्वालिन की पूजा करने का सदियों पुरानी परंपरा (old tradition) है. आज बाजार में ग्वालिन की मूर्ति की जगह मां महालक्ष्मी ने ले ली है.
विलुप्त होने की कगार पर परंपरा ग्वालिन की पूजा करने का अलग ही विधान है. इनकी पूजा के बाद ही पूरे घर को दीपों से रोशन किया जाता है लेकिन अब यह परंपरा अब धीरे-धीरे बदलती जा रही है. सुरहुत्ति तिहार (Surhuti Tihar) जिसे आज दीपावली पर्व और त्योहार के नाम से जाना जाता है, आज दीपों का पर्व दीपावली है. मां महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना के लिए बाजार में पूजन सामग्री (worship material) की दुकानें सज गई हैं.
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की जाती है मां लक्ष्मी की पूजा
महामाया मंदिर के पुजारी पंडित मनोज शुक्ला का कहना है कि आज के दिन मां महालक्ष्मी को कमल का फूल और कमल का गट्टा अत्यधिक प्रिय है. चंदन बंधन फल फूल मिठाइयां इत्यादि भी मां महालक्ष्मी को अर्पित की जाती है. मां महालक्ष्मी को कमल के फूल और कमल का गट्टा अति प्रिय है. उन्होंने बताया कि आज के दिन व्यापारी अपने खजाने में चावल की जगह कमल का गट्टा, हल्दी, धनिया आदि चीजों से अपने खजाने की पूजा अर्चना करते हैं और मां महालक्ष्मी (Mahalaxmi) को प्रसन्न किया जाता है.
इतिहासकार डॉक्टर हेमू यादव ने बताया कि पूरे भारतवर्ष में केवल छत्तीसगढ़ राज्य ही एक ऐसा राज्य है जहां पर ग्वालिन की पूजा होती है. ग्वाला कृष्ण भगवान को कहा जाता है और ग्वालिन के रूप में राधा की पूजा की जाती है जो कि बाजार में कम देखने को मिलती है. ग्वालिन कि मूर्ति में 3 दिए होते हैं. दोनों हाथ और सिर पर एक दिया, जिसे ग्वालिन का नाम दिया गया है और राधा के रूप में पूजन किया जाता है.