कोरबा: डॉ. अनिल शेष साल 2000 में कैंसर की चपेट में आ गए थे. गले के कैंसर से पीड़ित शेष को सर्जरी कराने की सलाह दी गई थी. लेकिन उन्होंने सर्जरी के स्थान पर कीमोथेरेपी का विकल्प चुना. कीमोथेरेपी काफी पीड़ादायक होता है. लेकिन वह न सिर्फ कैंसर जैसे गंभीर बीमारी से लड़े बल्कि इसे हराकर स्वस्थ होकर लौटे. (Dr Anil Shesh of korba defeated cancer ) डॉ शेष अब 80 वर्ष के होने वाले हैं. अब भी वह मरीजों को देखते हैं. 8 घंटे की प्रैक्टिस के बाद एक स्वस्थ दिनचर्या का पालन करते हैं. डॉ शेष की पत्नी को भी कैंसर ने अपनी चपेट में ले लिया था. गंभीर श्रेणी का कैंसर (severe cancer) होने के कारण डॉ. शेष की पत्नी 2 वर्ष पहले ही इस दुनिया से जा चुकी हैं.
सवाल- आपको सबसे पहले कब पता चला कि आप कैंसर की चपेट में हैं?
जवाब- साल 2000 की बात है. मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि मेरे गले में कुछ तकलीफ है. मेरे पुत्र ही पैथोलॉजिस्ट हैं. सबसे पहले मैंने उन्हें बताया और जांच की तो पता चला कि कैंसर है. जैसे ही हमें पता चला हम तुरंत मुंबई के टाटा कैंसर हॉस्पिटल गए और इलाज शुरू किया. वहां मुझे बताया गया कि गले की सर्जरी करानी होगी, लेकिन मैंने सर्जरी कराने से मना कर दिया, क्योंकि उसमें बहुत तकलीफ होती है, चेहरा बिल्कुल बिगड़ जाता है. मैंने कहा मुझे ऐसा जीवन नहीं चाहिए. उन्होंने मुझे कीमो और रेडियोथैरेपी के विकल्पों के बारे में बताया. हम वहां से नागपुर के टुकड़ो जी कैंसर अस्पताल चले गए. यह काफी बढ़िया अस्पताल है. वहां काफी सेवा भाव से काम होता है और सस्ते में इलाज कर दिया जाता है. 2 महीना मेरा वहां इलाज चला. तब से लेकर अब तक मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं. मुझे ऐसा विश्वास ही नहीं होता कि मैं किसी व्याधि से घिरा हुआ था. तब से अब तक मैं पूरी तरह से फिट हूं और अपने रोजमर्रा के सभी काम करता हूं. मेरा खुद का अस्पताल है. उसे मैं स्वयं चला रहा हूं.
सवाल- कैंसर के शुरुआती लक्षण क्या होते हैं. कैसे पता चले कि कैंसर हुआ है?
जवाब-अलग-अलग तरह के कैंसर में अलग-अलग सिम्टम्स होते हैं. हर श्रेणी के लक्षण अलग होते हैं. लेकिन सभी तरह के कैंसर में एक समान लक्षण है, वह है मानसिक दुर्बलता. लोगों को जैसे ही पता चलता है कि उन्हें कैंसर हो गया है, वह आधी जंग वहीं हार जाते हैं और पलायन की स्थिति में आ जाते हैं. कई लोग तो बाबा और मौलवी के चक्कर में पड़ जाते हैं, लेकिन ऐसा करना नहीं चाहिए. व्यक्ति मानसिक रूप से इतना टूट जाता है कि वह उसी समय आधा बीमार हो जाता है. सबसे बड़ी बात यही है कि आदमी अगर पॉजिटिव रहे तो दवाइयां भी अच्छी तरह से असर करती है. उसे जल्दी आराम मिलने की संभावना ज्यादा रहती है. व्यक्ति अगर नेगेटिव होगा तो वह वैसे ही अपना शरीर खराब कर लेगा, इसलिए कैंसर होने पर भी खुद को सकारात्मक रखना बेहद जरूरी है.
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सवाल- आपने बताया कि आपकी धर्मपत्नी की मृत्यु भी कैंसर की वजह से ही हुई थी, ये कैसे और कब हुआ?
जवाब- मैं 22 साल पहले कैंसर से पीड़ित हुआ, मेरी पत्नी का कैंसर अभी 2 साल पहले ही सामने आया. अब उनकी मृत्यु को भी 2 साल हो चुके हैं. मुझे गले का कैंसर था, जिसका इलाज संभव था, लेकिन मेरी पत्नी को पैंक्रियास का कैंसर हुआ था, जिसका कोई इलाज नहीं है. मेडिकल फील्ड से होने के नाते मैं शुरू से ही इस बीमारी को अच्छे से जान गया था. पत्नी भी मेडिकल टर्मिनोलॉजी से भलीभांति परिचित थी. हम मेंटली प्रिपेयर हो चुके थे. पत्नी को भी पता था कि इसका कोई इलाज नहीं है, इसलिए उन्होंने भी कह दिया था कि अब मेरा समय हो चुका है, तो हमने यह स्वीकार कर लिया था.
सवाल- पहले आप ग्रसित हुए, फिर पत्नी को भी इसी बीमारी की वजह से खो दिया कितना मुश्किल था वह समय आपने खुद को कैसे संभाला?
जवाब- देखिए, जहां तक संभलने का सवाल है, तो मैंने जो अपने जीवन में अब तक सीखा है कि आदमी सही कैसे रहे. उसकी सोच सही होनी चाहिए. मैं तो कहता हूं कि आचार, विचार, व्यवहार, आहार और चरित्र. यह पांच चीजें जिसने संभाल ली, उसने जंग जीत ली. इसके साथ ही अगर सकारात्मक सोच हो तो सोने पर सुहागा वाली बात है. अभी मैं देख रहा हूं कि लोगों की सोच सकारात्मक नहीं रहती. जिसके कारण वह जल्दी ठीक नहीं हो पा रहे हैं. वह पलायन का रास्ता अपना लेते हैं, लेकिन वह ये नहीं समझ पाते कि पलायन से वह बीमारी को और बढ़ा रहे हैं. जब पेशेंट का एटीट्यूड सही होता है, तब वह खुद भी जल्दी ठीक होता है और डॉक्टर को भी इससे सुविधा होती है.