बिलासपुर:महान दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. आज हर व्यक्ति को समाज के साथ और प्यार की जरूरत है. कोई भी इंसान बिना समाज के आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि समाज ही हमें माहौल देता है, जिसमें हम ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी जिंदगी जीने के बारे में सोच सकें. अरस्तू के ये शब्द हमारे वर्तमान मनोभावों को दर्शाते हैं और फिजिकल डिस्टेंसिंग के बीच सामाजिक जुड़ाव के भाव को और ज्यादा प्रबल करते हैं. ETV भारत ने करीब ढाई महीने के लंबे लॉकडाउन और इस दौरान किए गए सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर लोगों से बातचीत की है.
बिलासपुर सेंट्रल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर अनुपमा सक्सेना का मानना है कि कोरोना काल के शुरुआती सफर में जब अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय स्तर पर सीमाओं को बांधने का काम किया गया, तो वो समय भय का था, लेकिन वह एक अस्थाई फेज था. बाद में लोग धीरे-धीरे सामाजिक तौर पर दोबारा अनुकूलित होने लगे. इस बीच सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन जैसे शब्दावली के अस्थाई दुष्प्रभाव भी दिखे और लोगों में भय जैसा माहौल बना.
'समाज के अलग-अलग लोगों ने निभाई भूमिका'
प्रोफेसर अनुपमा का कहना है कि सामाजिक संबंध और मानवीयता जैसे गुण इंसान में होते हैं और व्यक्ति अपने इस मूल स्वभाव के उलट लंबे समय तक नहीं जी सकता. यही वजह है कि कोरोना संकट के दौरान भी बड़े पैमाने पर अलग-अलग सामाजिक संगठनों, डॉक्टरों,आम लोगों और पत्रकारों ने बढ़ चढ़कर अपनी सामाजिक भूमिका निभाई.
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अनुपमा सक्सेना बतातीं हैं कि सामाजिक तौर पर जो व्यापक बदलाव आता है उसके पीछे मूल वजह आर्थिक है. इसमें उत्पादन की शक्तियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. जब कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को छोड़कर लोगों का रुझान उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ा तो संयुक्त परिवार में अलगाव भी हुआ और इस वजह से सामाजिक संरचना में भी बहुत हद तक बदलाव आया. आज वर्क फ्रॉम होम कल्चर के बढ़ने से एक बार फिर ज्वॉइंट फैमली स्ट्रक्चर की तरफ लोग बढ़ रहे हैं.