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पहचान खोने के कगार पर पहुंचा मिट्टी का दीपक, कुम्हार के व्यवसाय से नई पीढ़ी ने बनायी दूरी

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Published : Oct 22, 2022, 10:38 PM IST

दीपों का उत्सव दिवाली (Diwali Festival 2022) की मुख्य पहचान मिट्टी का दीपक है. लेकिन इलेक्ट्रॉनिक लाइट्स के आ जाने से अब ये पहचान खोने की कगार पर पहुंच गयी है. जिस दीपक को प्रज्वलित कर हम सुख समृद्धि की कामना करते हैं, उस दीपक को गढ़ने वालों की की जमीनी सच्चाई बेहद दुखद है. नई पीढ़ी इस व्यवसाय से जुड़ने को तैयार नही है. पढ़ें पूरी रिपोर्ट...

दीया बनने वाले कुम्हार की हालत खराब
दीया बनने वाले कुम्हार की हालत खराब

वैशाली: भले ही कई तरह के रंग-बिरंगे लाईट्स और सजावट की तमाम चीजें दीपावली पर्व पर मौजूद हो, लेकिन दीपावली की पारंपरिक पहचान मिट्टी का दीपक ही है. कमोबेश सभी घरों में दीपावली के दिन शुभ लाभ के साथ सुख-समृद्धि की कामना लिए लोग मिट्टी का दीपक प्रज्वलित करते हैं. मिट्टी के दीपक में तेल और बाती डालकर रोशनी बिखेरने की पौराणिक परंपरा है. जरा सोचिए अगर कोई मिट्टी का दीपक बनाने वाला ही ना रहे तो मिट्टी का दीपक आएगा कहां से. कुछ ऐसे ही हालात बनते जा रहे हैं. दरअसल, नए पीढ़ी के युवा मिट्टी के दीपक, बर्तन और खिलौने बनाने के काम में रुचि नहीं दिखा रहे हैं.

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नई पीढ़ी में कुम्हार के कार्य के प्रति उदासीनता: कुछ ऐसे ही कहानी है हाजीपुर प्रखंड के काशीपुर चक बीवी गांव की. जहां बरसों से 4 परिवार के लोग ही मिट्टी के बर्तन बनाते आ रहे हैं. बीते 30 वर्षों से नई पीढ़ी के किसी ने भी इस कला को नहीं सीखा है. अभी भी जो लोग मिट्टी का दीपक बना (Bad Condition of Potters In Vaishali) रहे, उनका कहना है कि इससे उनका गुजारा नहीं हो रहा है. मिट्टी का बर्तन बनाना काफी मेहनत का काम है. इसका बाजार भी काफी कम हो गया है. मिट्टी खरीद कर लाना पड़ता है. फिर बारीकी से साफ कर गोदा जाता है. चाक पर बड़ी मेहनत से हुनरमंद कुम्हार मिट्टी के बर्तन गढ़ते हैं. इसके बाद उन्हें महंगे दामों में खरीदे गए लकड़ी से आग प्रज्वलित कर पकाया जाता है. तब उनका रंग रोगन कर आकर्षक बनाया जाता है.

मिट्टी के प्रोडक्ट्स के लिए डिमांड में आयी कमी:इतने मेहनत करने के बावजूद भी मिट्टी के बर्तन बनाने वाले इन लोगों को खुद ही बाजार तलाशने जाना पड़ता है. फिर भी मेहनत और हुनर की कीमत नहीं मिल पाती है. 50 रुपए में 100 बेचना भी मुश्किल होता जा रहा है. शायद यही कारण है कि नई पीढ़ी अब इसमें रुचि नहीं ले रही है. और धीरे-धीरे यह विद्या लुप्त होने के कगार पर पहुंच गया है. स्थानीय गणिता देवी, राजकली देवी और शंभू पंडित बताते हैं कि मिट्टी के बर्तन गढ़ना अब कितना मेहनत का काम है.

पहले जहां मिट्टी मुफ्त में मिलती थी, जलवान पेड़ पौधे से इकट्ठा होते थे, वहीं अब इनके लिर काफी पैसे देने पड़ते हैं. इसी कारण से नई पीढ़ी इस व्यवसाय से जुड़ना नहीं चाह रही है. काफी मेहनत के बावजूद रोजी-रोटी चलाना मुश्किल हो रहा है. ऐसे हालात में कहा जा सकता है कि सरकार भी इनके प्रति उदासीन है और आम लोग भी मिट्टी के दिए और बर्तन के महत्व को भूलते जा रहे है. हालात ऐसे हो गए हैं कि जिनके दिए से कभी घरों में रोशनी फैलती थी उनके घर पर अंधेरे का खतरा मंडरा रहा है.




"हम लोग दिया बर्तन वगैरह बनाते हैं लेकिन इसमें अब मुनाफा उतना नहीं है. हम लोग थक कर परेशान हो गए है. मिट्टी को बनाना पड़ता है, चीरना पड़ता है, कंकर पत्थर निकालना पड़ता है, फिर उसको गढ़ना पड़ता है और मुनाफा नहीं है"- शंभू पंडित, स्थानीय

"हम लोगों को इस काम में कोई भी मुनाफा नहीं है अब उतना बनता भी नहीं है उतना बिक्री भी नहीं है. बिजनेस हम लोग दूसरा करना चाहते हैं तो नहीं मिलता नही है. इसमें मेहनत और परेशानी बहुत ज्यादा है. दीया बनाया जा रहा है, बच्चों का खिलौना बनाया जा रहा है थोड़ा मोड़ा बनाते हैं. बाजार में जाते हैं लेकिन इतना नहीं बिकता है. पहले से बाजार कमा है बढ़ा नही है. परेशानी से घर परिवार चलाना पड़ता है. हम लोगों को मिट्टी 2000 रुपए टेलर खरीदना पड़ता है. जलावन खरीदना पड़ता है. नई पीढ़ी बताना नहीं चाहता है किउंकि इसमे बहुत मेहनत है. हम लोग जो पहले करते आ रहे थे वही लोग करते हैं. बच्चा लोग सोच रहा है कि हम लोग कोई और काम करें"-गनिता देवी, स्थानीय



पहले नहर और पोखरी था तो कुम्हार लोग मिट्टी लाकर बनाता था. अब सरकार बेच लिया और चिमनी वाला चिमनी चलाता है. बहुत महंगाई बढ़ गया है कमाते कमाते लोग परेशान लेकिन गुजारा नहीं है. 40 साल से हम लोग यह काम कर रहे है. महंगाई इतना हो गया है कि मिट्टी के काम से कोई भी फायदा नहीं है" - राजकली देवी, स्थानीय

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