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पुण्यतिथि विशेष: भोजपुरी के इस शेक्सपियर ने छोड़ी अमिट छाप, शिष्य तक को मिला पद्मश्री - भोजपुरी के प्रसिद्ध कलाकार

भोजपुरी (Bhojpuri) के अमर कलाकार भिखारी ठाकुर की आज 50 वीं पुण्यतिथि है. भिखारी ठाकुर भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के संदेश वाहक, लोकगीत और भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे. तो आइये जानते हैं भोजपुरी जगत की प्रासंगिकता को आज भी बरकरार रखने वाले शख्स की कहानी...

अमर कलाकार
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Published : Jul 10, 2021, 2:20 PM IST

सारण: एक जमाना था जब किसी भी परिवार में बड़े उत्सव पर बड़े ही अरमान के साथ लौंडा नाच करवाया जाता था. बिहार का लौंडा नाच की खुमारी बिहार की राजनीति से लेकर फिल्मी दुनिया तक देखी गई है. इस लौंडा डांस की शुरुआत करने वाले और भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) की आज 50 वीं पुण्यतिथि (Death Anniversary) है. वे महान नाटककार, कवि, गीतकार, समाज सुधारक, महान चिंतक व विद्वान थे. उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाता है. उन्होंने विभिन्न विधाओं के माध्यम से समाज में फैली विकृतियों के खिलाफ जंग छेड़ा था. उसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है.

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भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर 1887 में बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर (दियारा) गांव में हुआ था. भिखारी ठाकुर भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत और भजन कीर्तन के साधक थे. वे एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे. वे भोजपुरी गीतों और नाटकों की रचना के लिए अभी भी काफी प्रसिद्ध हैं. इन्हें 'भोजपुरी का शेक्सपियर'भी कहा जाता है.

नाट्य मंचन.

भिखारी ठाकुर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. एक ही साथ वे कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता भी थे. भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी. उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक में प्रयोग किया. भिखारी ठाकुर एक नाई परिवार से संबंध रखते थे. उनके पिता का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था. कुछ समय पश्चात वे अपने जीविकोपार्जन के लिए खड़गपुर चले गए थे. जहां उन्होंने काफी पैसा कमाया. लेकिन वे अपने काम से संतुष्ट नहीं होते थे. जिसके बाद वे जगन्नाथपुरी चले गए थे.

जगन्नाथपुरी से लौटने के बाद भिखारी ठाकुर अपने ही गांव में एक नृत्य मंडली बनाए. जिसके बाद वे उसी रामलीला में खेलने लगें. नत्य मंडली में खेलने के साथ-साथ उन्होंने पुस्तक लिखना भी प्रारंभ कर दिया. पुस्तक की भाषा सरल होने से लोग अधिक से अधिक पढ़ना शुरू कर दिए थे. भिखारी ठाकुर के माध्यम से लिखी गई किताबें वाराणसी, हावड़ा और छपरा से प्रकाशित हुई थी. वहीं 10 जुलाई सन् 1971 में उनका निधन हो गया.

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बता दें कि भिखारी ठाकुर के ग्रुप के एक मात्र जीवित सदस्य पद्मश्री रामचंद्र मांझी हैं. लौंडा नाच के प्रसिद्ध कलाकार रामचंद्र मांझी (Ramchandra Manjhi) सारण जिले के नगरा, तुजारपुर के रहने वाले हैं. प्रसिद्ध नाटककार स्वर्गीय भिखारी ठाकुर की परंपरा को जीवित रखने वाले रामचंद्र मांझी उन कलाकारों की एक आस बने हैं, जो सूचना और प्रौद्योगिकी के इस युग में खोती जा रही विधाओं के संरक्षण में दिन रात कार्यरत हैं. 94 वर्ष की उम्र (2021) उन्हें भारत सरकार के माध्यम से पद्मश्री अवार्ड (Padma Shree Award) से सम्मानित भी किया गया था. इस अवार्ड के बाद अन्य कलाकारों में खुशियों की लहर दौड़ गई थी. पद्मश्री के लिए उनके नाम की घोषणा पर उन्होंने खुशी जाहिर की थी.

देखें वीडियो.

मांझी ने बताया कि उनके जैसे कलाकार को सरकार ने बड़ा सम्मान दिया है. यह उनके सम्मान के साथ भिखारी ठाकुर की कला का भी सम्मान है. रामचंद्र मांझी को पटना में एक समारोह के दौरान 'लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड' (Life Time Achievement Award) से भी सम्मानित भी किया जा चुका है. उस दौरान उन्होंने कहा था कि उन्हें जो मिला वो सपने भी नहीं सोचे थे. इसके साथ ही उन्हें केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के माध्यम से संगीत नाटक अकादमी अवार्ड 2017 से नवाजा जा चुका है. उन्हें राष्ट्रपति के हाथों प्रशस्ति पत्र और एक लाख रुपये की पुरस्कार राशि दी गई थी. यह अकादमी पुरस्कार (Academy Awards) 1954 से हर साल रंगमंच, नृत्य, लोक संगीत, ट्राइबल म्यूजिक सहित कई अन्य क्षेत्रों में दिया जाता है.

लौंडा डांस बिहार का प्रमुख डांस माना जाता है. लौंडा नाच बिहार की प्राचीन लोक कलाओं में से एक है. यह नृत्य नाटिका की एक लोकविधा है. इसमें लड़का, लड़की की तरह कपड़े पहन कर, मेकअप कर उन्हीं की तरह नृत्य करता है. शादी विवाह और अन्य शुभ आयोजनों पर लोग अपने यहां ऐसे आयोजन कराते हैं.

भिखारी ठाकुर के लोकगीतों के केंद्र में न सत्ता थी और ना ही सत्ता पर काबिज रहनुमाओं के लिये चाटुकारिता भरे शब्द. जिंदगी भर उन्होंने समाज में मौजूद कुरीतियों पर अपनी कला और संस्कृति के माध्यम से कड़ा प्रहार किया. लोककवि के नाम और उनकी ख्याति को अपनी राजनीति का मापदंड बनाकर वोट बैंक की राजनीति करने वाले राजनेताओं ने भिखारी ठाकुर के गांव के उत्थान को लेकर यूं तो कई वादे किए, लेकिन वे सभी मुंगेरी लाल के हसीन सपनों की तरह हवा-हवाई साबित हुए. यही कारण है कि सरकारी उदासीनता ने भिखारी ठाकुर की रचनाओं और उनकी प्रासंगिकता को एक बार फिर संघर्ष के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है.

बिदेशिया, बेटी-बेचवा, गबरघिचोर, पिया निसइल, जैसी कई रचनायें हैं, जिसने न सिर्फ लोगों के मन में एक खास जगह बनायी, बल्कि समाजिक कुरीतियों पर भी कड़ा प्रहार कर आंदोलन की एक नयी राह खड़ी की. भिखारी ठाकुर ने अपने दौर में जीवंत रचनाओं के जरिए, जिस बेबाकी से सामाजिक बुराइयों की ओर ध्यान खींचा,अगर पिछली सरकारें उस ओर नजर-ए-इनायत करतीं तो शायद भोजपुरी और लोककवि दोनों ही सामाजिक सरोकार के सबसे बड़े प्रणेता और पथ प्रदर्शक बन कर उभरते. जिस भिखारी ठाकुर ने सदियों पूर्व ही समाज को एक नयी चेतना दी थी आज उनके गांव, परिवार और दुर्लभ रचनाओं को सहेजने के लिए सिवाए खोखली घोषणाओं के कुछ नहीं. आज भी लोककवि का पैतृक गांव कुतबपुर दियारा विकास के लिए संघर्षरत है.

बता दें कि पिछले साल लॉकडाउन के बाद रामचंद्र मांझी की स्थिति खराब हो गई थी. किसी ने कोई मदद नहीं की थी. उन्होंने सरकार से अपील की थी कि आगे का रास्ता प्रशस्त किया जाए, जिससे जीवनयापन कर सकें. मांझी के पास रहने के लिए आज भी कच्चा खपरैल का मकान है. पत्नी का भी निधन हो चुका है. वर्तमान समय में खेती और दुकानदारी कर परिवार चला रहे हैं.

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