रोहतास: कठपुतली डांस के कदरदान काफी कम हो गए हैं. इंटरनेट और यूट्यूब के जमाने में कठपुतली नृत्य के प्रति लोगों की उदासीनता बढ़ गई है. लेकिन, फिर भी जब महेंद्र अपने 'चुनमुनिया' को लेकर निकलते हैं, तो बरबस ही लोगों की निगाहें उस और दौड़ जाती हैं. उनको देखकर इस कला की लाचारी साफ ही देखी जा रही है. दअरसल, लकड़ी के पारंपरिक वाद्य यंत्र को अपने मुंह में लगाए महेंद्र तरह-तरह के संगीत निकालते हैं. उसी संगीत के धुन पर धागे के सहारे जब कठपुतली नाचती है, तो एक सुंदर-सा दृश्य उभरता है. लेकिन अब इस कठपुतली नृत्य से महेंद्र का पेट नहीं पलता.
Puppet Dance: 'इंटरनेट' के दौर में फीकी पड़ी कठपुतलियों की रौनक, देखिए छोटी सी चुनमुनिया के ठुमके- VIDEO - Rohtas Puppet dance art lost existence
देश क्या अब प्रदेश में धीरे-धीरे कठपुतली कला विलुप्त होती जा रही है? लेकिन अभी कहीं-कहीं इक्का-दुक्का यह कला देखने को मिल रही है. ऐसे में बिहार के सासाराम गांव के रहने वाले महेंद्र आज भी अपनी पुश्तैनी कला को जीवित रखे हुए हैं. वो लोगों को घूम-घूम कर कठपुतली का नाच दिखाते हैं.
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कठपुतली का यह रहा इतिहास : ‘कठपुतली का इतिहास’ के बारे में कहा जाता है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनी के अष्टाध्यायी ग्रंथ में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है. कठपुतली डांस की शुरुआत के बारे में कुछ पौराणिक मत ये भी हैं कि भगवान भोलेनाथ ने माता पार्वती का मन बहलाने के लिए काठ की मूर्ति में प्रवेश कर इस कला की शुरुआत की थी. वहीं, इसी प्रकार उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य के सिंहासन में जड़ित 32 पुतलियों का उल्लेख 'सिंहासन बत्तीसी' नाम की कथा में भी मिलता है.
''हमारे दादा-परदादा यह पुश्तैनी कला को दिखाते थे, उन्ही से सीख कर किसी तरह लोगों को कठपुतली का खेल दिखाकर अपना रोजी रोटी चलाते हैं. इसी खेल से कुछ कमा लेते हैं, किसी तरह जीवन की गाड़ी का पहिया चल रहा है. परिवार का भरण पोषण हो रहा है. साथ में एक भाई है वह भी यह कला दिखाते हैं.''- महेन्द्र, कठपुतली कलाकार
आज के इंटरनेट के युग में कठपुतली डांस कोई नहीं देखना चाहता. यही डांस अगर यूट्यूब जैसी अलग साइटों पर देखा जाए तो उसके कद्रदान बहुत मिलेंगे. लेकिन पुरातन तरीके से इस कला को देखने में अब रुचि नहीं दिखा रहे हैं.