पूर्णिया:सीमांचल इलाके के इस मुस्लिम परिवार के बांसुरी की धुनएक समय वृंदावन और मथुरा तक में सुनाई देती थी. गोकुलवासी तो इनके बांसुरी के धुन को सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे लेकिन कोरोना की मार ने इस परिवार के सुरीले धुन को फीका कर दिया है. कोरोना संक्रमण ने न सिर्फ इनके धुन को पूर्णिया में बांध दिया ब्लकि इनके रोजगार को भी तोड़कर कर रख दिया है. आलम ये है कि वह बांसुरी जो अपने जादुई खूबियों के कारण सात समंदर पार तक गूंजती रही, उसी कारोबार के अस्तित्व को बचाने के लिए परिवार गहरे संकट से जूझता दिखाई दे रहा है.
फीका पड़ा बांसुरी का कारोबार
दरअसल, जिला मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित श्रीनगर प्रखंड के हंसेली खुट्टी पंचायत के कदगामा गांव में करीब 3 पीढ़ियों से मुस्लिम परिवार के लोग मजहबी दीवार लांघकर बांसुरी निर्माण की कारीगरी में जुटे हैं. सुरीली बांसुरी की कमाई से ही कदगामा गांव के मुस्लिम परिवार की दाल-रोटी से लेकर सभी छोटी-बड़ी जरूरतें पूरी होती थी. मगर बदलते वक्त के साथ मौजूदा दौर में इन मुस्लिम कारीगरों के लिए हालात पूरी तरह विषम हो चले हैं. वहीं, बांसुरी का कारोबार कर अपना और अपने परिवार का पेट पालना अब ऐसे परिवारों के लिए मुश्किलों भरा साबित हो रहा है.
3 पुश्तों से बांसुरी का कारोबार करने वाले मो आरिफ बताते हैं कि शुरुआत में कदगामा में रहने वाले करीब 500 मुस्लिम कारीगर बांसुरी निर्माण के कारोबार में जुटे थे. मगर वक्त के साथ बांसुरी की घटती ठसक के चलते धीरे-धीरे कारीगर पेशे से तौबा करने लगे. वहीं, रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी. जिसके चलते 100 से भी कम लोग अब इस पेशे में शेष रह गए हैं. आरिफ कहते हैं कि कोरोना ने बांसुरी कारोबार को पूरी तरह चौपट कर दिया है. जिसके बाद अब इन परिवारों के लिए गुजारा कर पाना तक मुश्किल हो रहा है
आरिफ के बेटे मो जावेद कहते हैं कि बांसुरी निर्माण की कला बीतते वक्त के साथ कमजोर पड़ी है. बड़ी ही तेजी से लोगों में बांसुरी को लेकर मोहभंग हुआ है. वहीं, बाजारों में इसकी डिमांड घटने से इस कला को सीखने से नए कारीगर साफ मुंह मोड़ रहे हैं. बांसुरी कारोबार से जुड़े मोहम्मद ताहीर, मोहम्मद नियाज, मोहम्मद मोइन आलम, इंतकाब आलम, मोहम्मद सदीक, मो युसूफ , दानिश इकबाल जैसे दर्जनों ऐसे नाम हैं, जो कोरोना काल में कारोबार पर लॉक लगने के बाद पेशे से तौबा कर काम ढूंढने परदेस चले गए.
धंधा पड़ा मंदा, बिगड़ी बांसुरी की तान
मो साजिद बताते हैं कि कोरोना काल के बाद दोबारा पटरी पर लौटी रेल व बस जैसी सेवाओं के सफर जिस तरह से महंगे हुए हैं. लागत तक निकालना मुश्किल हो गया है. वे बताते हैं कि बांसुरी निर्माण में मुलत असम के मकोर बांस का उपयोग होता है. इस बांस से निकला स्वर और तान काफी अच्छा होता है. हालांकि, देसी बांस से भी बांसुरी निर्माण कर लेते हैं. जिसे बनाने में भी अधिक मेहनत पड़ता है और स्वर भी सही नहीं निकल पाता है. देसी बांसुरी सूखने के साथ फट जाता है और स्वर खराब हो जाता है. वहीं, बांसुरी की डिमांड में आई गिरावट की बड़ी वजहों में यह भी शामिल है.
लॉकडाउन ने तोड़ी बांसुरी कारीगरों की कमर
वे बताते हैं लॉकडाउन में सामान्य परिवहन सेवाओं पर प्रतिबंध होने से न ही असम से बांस मंगाई जा सकी और न ही वे माल खपाने कृष्ण नगरी तक अपनी बांसुरी पहुंचा पाए. कोरोना संक्रमण के चलते करीब एक साल से व्यापार पूरी तरह से ठप है. संक्रमण को लेकर मथुरा, गोकुल व वृंदावन जैसे बाजारों के व्यपारियों की ओर से अब तक डिमांड नहीं आया है. वहीं, बांसुरी खपाने का तीसरा विकल्प मेला था. पर कोरोना काल की वजह से इसपर भी प्रतिबंध लग जाने से उनके सामने रोजी रोटी की गहरी संकट आन पड़ी है.
बांसुरी से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल
हालांकि मो मोइनुद्दीन कहते हैं कि बांसुरी कारोबार में अचानक से ये गिरावट नहीं आई. जिस प्रकार बांस की कीमत और परिवहन सेवाएं महंगी होती जा रही हैं. उस हिसाब से कीमतों में बदलाव नहीं आया. ऊंची तान वाली ए ग्रेड बांसुरी के दामों में इजाफा किया भी गया. तो उसके खरीददार भी कम गए. हालांकि, इनका व्यपार सामान्य बांसुरियों पर टिका है. जिसकी कीमत बाजार में 50-100 के करीब होती है. मकोर के एक बांस की कीमत 200 रूपये तक बढ़ गए हैं. वहीं परिवहन समेत दूसरे खर्चों को जोड़े तो अब मेहनताना निकालना भी मुश्किल हो रहा है.
सरकारी स्कीमों से महरूम हैं कारीगर
बांसुरी ने जिले को एक नई पहचान दी है। जिले की बांसुरी की गूंज कृष्ण नगरी में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी गूंज रही है. पेशे को समृद्ध करने के लिए सरकार कई तरह की योजनाएं चला रही है, मगर उन्हें अब तक सरकार या फिर जिला प्रशासन से कोई मदद नहीं मिल सकी. यही वजह भी है कि इस पेशे को छोड़ अब मुस्लिम परिवारों के लोग कहीं माल-मजदूरी कर किसी तरह अपना व अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं.
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