पटना/नई दिल्ली: बिहार में नए कांग्रेस अध्यक्ष (Bihar Congress President ) के चयन को लेकर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व पशोपेश में पड़ा हुआ है. पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) की घटना के बाद किसी भी राज्य में प्रदेश अध्यक्ष के चयन को लेकर कांग्रेस फूंक-फूंक कदम रख रही है. पिछले 3 दिनों से दिल्ली के मुख्यालय में बिहार प्रदेश अध्यक्ष को लेकर महामंथन चल रहा है, जिस पर कोई निर्णय अभी तक नहीं हो पाया. लेकिन यह माना जा रहा है कि इसी सप्ताह बिहार को नया प्रदेश अध्यक्ष मिल जाएगा.
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बिहार के प्रदेश प्रभारी भक्त चरण दास और कांग्रेस केंद्रीय टीम की कई बैठकें हो चुकी हैं. लेकिन अभी अंतिम फैसला नहीं हो पाया है. बिहार में जातीय समीकरण को साधना प्राथमिकता में होता है और यही वजह है कि दलित और सवर्ण वाली राजनीति में कांग्रेस उलझ कर रह गई है.
बिहार में कांग्रेस अपनी जमीन और जनाधार को मजबूत करने में जुटी हुई है. 1990 से कांग्रेस लगातार राजद के पीछे की सियासत में है. 2015 में बदले राजनीतिक हालात में जब नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेस साथ हुए तो उस समय अशोक चौधरी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे. जिस समीकरण को बिहार में खड़ा किया गया उसमें 26 सीटें कांग्रेस के खाते में आई.
लंबे समय तक बिहार की राजनीति में दहाई अंक तक नहीं पहुंच पाने वाली कांग्रेस 26 सीटें जीतकर आई तो माना जाने लगा है कि बिहार में कांग्रेस का कमबैक हो गया है. हालांकि वोट प्रतिशत की बात करें तो 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कुल 9.04 फ़ीसदी वोट मिला था. लेकिन जीत 26 सीट पर हुई थी. 2017 में लालू कांग्रेस से गठबंधन तोड़कर नीतीश कुमार फिर भाजपा के खाते में गए, तो 2019 के लोकसभा चुनाव और 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में जो प्रदर्शन कांग्रेस का रहा, उसे बिहार में कांग्रेस की जमीन मजबूत हो रही है. इसने शीर्ष नेतृत्व को एक आधार जरूर दिया है.
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2020 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 19 सीटें जीती, सीट की संख्या कम हुई लेकिन कुल 9.48 फ़ीसदी वोट कांग्रेस के खाते में आया जो 2015 के मुकाबले 2020 में ज्यादा था. कांग्रेस की सबसे बड़ी चिंता और चुनौती भी यही है कि प्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर किसे उतारा जाए.
हालांकि वर्तमान में कांग्रेस के बिहार प्रभारी भक्त चरण दास की मंशा है कि किसी दलित या पिछड़े को बिहार में अध्यक्ष बनाया जाए. जबकि एक बड़े वर्ग का मानना है कि बिहार में दलित और पिछड़ा वर्ग कांग्रेस का वोट बैंक रहा नहीं तो ऐसे में अगड़ी जाति के लोगों में से ही किसी को अध्यक्ष की कमान दी जाए.
हालांकि दिल्ली में चल रही बैठक में दो नामों की चर्चा सबसे ज्यादा है. इनमें अगर दलित व पिछड़े को लेकर कोई निर्णय होता है तो उसमें राजेश राम का नाम सबसे आगे चल रहा है. अगर कांग्रेस बिहार की कमान सवर्ण के हाथ में देती है तो अखिलेश सिंह के नाम पर भी चर्चा जोरों पर है. कुल मिलाकर एक और वर्ग है जिसमें यह भी कहानी चल रही है कि अगर अध्यक्ष पद पर किसी को दिया ही जाना है, तो मदन मोहन झा के कार्यकाल को एक अध्यक्षीय कार्यकाल के लिए और बढ़ाया भी जा सकता है, इसकी भी चर्चा जोरों से चल रही है.
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कांग्रेस के सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार कांग्रेस इसी हफ्ते बिहार के प्रदेश अध्यक्ष का नाम तय कर देगी. क्योंकि बिहार में जिस तरीके की सियासत अभी चल रही है उसमें बगैर अध्यक्ष के पार्टी का होना ठीक नहीं है. बिहार विधानसभा की 2 सीटों पर उपचुनाव होना है. जिसमें तारापुर और कुशेश्वरस्थान है. अगर गठबंधन की ही बात करें तो तारापुर सीट राजद के कोटे की है, जबकि कुशेश्वरस्थान कांग्रेस कोटे की सीट रही है.
ऐसे में कुशेश्वरस्थान अगर कांग्रेस के खाते में आती है और वहां से चुनाव लड़ते हैं तो उसके लिए भी नीति और रणनीति प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर बनाने के लिए होना जरूरी है. माना यह भी जा रहा है कि इसी हफ्ते मुहर इसलिए भी लगा दिया जाएगा क्योंकि बिहार की राजनीति से उत्तर प्रदेश की राजनीति को साधने की जो कवायद है, उस पर भी तेजी से काम चल रहा है.
सूत्रों से यह भी जानकारी मिली है कि अध्यक्ष के अलावा बिहार में 8 कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए जा सकते हैं, जिसमें वामदल से वर्तमान में कांग्रेस का हाथ पकड़े बिहार के नेता कन्हैया कुमार को भी कार्यकारी अध्यक्ष की सूची में रखा जा सकता है. बिहार अध्यक्ष के चुनाव को लेकर दिल्ली में कांग्रेस दफ्तर का माहौल गर्म है. माना यह भी जा रहा है कि पंजाब से सीख लेकर बिहार में बदलाव के कदम को उठाया जाएगा ताकि कोई विरोध कांग्रेस को किसी दूसरी डगर पर ले जाकर न खड़ा कर दें, क्योंकि उपचुनाव के बाद उत्तर प्रदेश के चुनाव में बिहार की हर बात का असर दिखेगा और यही कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए चुनौती भी है.